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प्रस्तावना
आगम-मर्मज्ञ पं० मुनि श्री घासीलालजी महाराज (१८८४-१९७३ ई०) एक मनीषी शब्द शिल्पी थे, जिन्होंने 'प्राकृत चिन्तामणि' जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ का सृजन किया नानार्थक शब्द कोश "नानार्थोदय सागर कोष' (हिन्दी-टीका-सहित) जैसे बह्वर्थबोधी कोश की रचना की।
शब्द यद्यपि जड़ होता है, तदपि उसमें अनुभूति की जो जीवन्तता एक रचनाकार सन्निविष्ट करता है, वह महत्व की होती है । वस्तुतः शब्द एक पात्र है, जिसमें अर्थ या परमार्थ स्थापित करता है रचयिता और जिसकी पुनरनुभूति करता है पाठक, दर्शक, श्रोता या आस्वादक। किस समय, किस स्थिति का कितना दबाव है, इसका ध्यान रख कर ही शब्द की संवेदनशीलता में उतार-चढ़ाव आते हैं। शताब्दियों में अन्तहोन ओर-छोर से यात्रायित एक शब्द किन किन विवक्षाओं से गुजरा है, जब तक इसकी विशद जानकारी एक कोशकार को नहीं होती, तब तक वह अपने छोर पर सम्बन्धित शब्द की व्याख्या/विवेचना नहीं कर सकता। संस्कृत के पास कितनी अपरंपार/अकूत शब्द-संपदा है, इसे विश्व के प्रायः सभी भाषाशास्त्री जानते हैं। यह शब्द-संपदा दिन-दो दिन का विकास नहीं है, अपितु शताब्दियों का संचयन है।
परिवर्तनों की लहरें आती हैं। सत्ताएँ उलट जाती हैं। सभ्यताएँ काल कवलित हो जाती हैं, फिर भी शब्द सिर ताने खड़ा रहता है। शब्द, वस्तुतः, मनुष्य की सर्वोपरि उपलब्धि है, जिसके द्वारा वह काल
। अमर-मत्यंञ्जय हआ है। आज भी हम शब्द के माध्यम से ही अपनी पूर्ववर्ती विचार पूंजी को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त करते हैं। माना, शब्द की अपनी सीमाएँ हैं । वह किसी एक पल में किसी एक समग्रता/संपूर्णता को अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, तथापि वह मनुष्य के हाथों में एक ऐसा मृत्युंजयी औजार है जिसके द्वारा वह प्रगति के सूत्र को आगे बढ़ाता है/बढ़ाता आया है।
प्रश्न उठता है कई बार कि जब एक ही शब्द से काम चल रहा होता है तब उसके पर्याय अथवा समानार्थक शब्द की आवश्यकता क्यों होती है ? होती है, इसलिए कि कई बार हम किसी एक शब्द द्वारा अपनी मनोदशा को उसकी परिपूर्णता में सम्प्रेषित नहीं कर पाते अथवा किसी एक युग-चेतना को उसके द्वारा लोकहृदय तक पहुँचाने में असफल होते हैं, अतः किसी समानार्थक शब्द का या उसी शब्द में किसी अन्य अर्थ का नवोन्मेष हमें करना होता है। पर्यायिकी (सिनोनिमी) का विकास इसी दबाव या आवश्यकता के कारण हुआ है । वस्तुतः कोई शब्द समानार्थक होता ही नहीं है, वह लगभग समानार्थक होता है । नानार्थकता समानार्थकता के बाद की सीढ़ी है । जब हम दूसरा शब्द नहीं ढाल पाते तब अपने
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