________________
६८ : जैन पुराणकोश
एषणासमितिव्रत-औदुम्बरी
एषणासमितिव्रत-एक व्रत । यह नौ कोटियों से लगनेवाले छियालीस
दोषों को नष्ट करने के लिए किया जाता है। इसमें चार सौ चौदह उपवास तथा उतनी ही परणाएँ की जाती हैं । हपु० ३४.१०८
ऐतिह-इतिहास । मपु० १.२५ ऐन्द्र-इस नाम का एक रथ । राम से युद्ध करने के लिए रावण बहु
रूपिणी विद्या से निर्मित और ऐरावत हाथी के समान मन्दोन्मत्त
हाथियों से जुते हुए इस रथ पर आरूढ़ हुआ था । पपु०७४.५-१० ऐन्द्री-भरत की पच्चीस से अधिक भाभियों में एक । पपु० ८३.९४ ऐरा-(१) गान्धार देश में गान्धार नगर के राजा अजितंजय और
उसकी रानी अजिता से उत्पन्न राज-पुत्री । इसका विवाह हस्तिनापुर के राजकुमार विश्वसेन से हुआ था। अपरनाम ऐरावती । मपु० ६३. ३८२-४०६, पपु० ५.१०३, २०, ५२
(२) भोगपुर के राजा पद्मनाथ की रानी, चक्रवर्ती हरिषेण की जननी । मपु० ६७.६३-६४ ऐरावण-(१) नील पर्वत से साढ़े पांच सौ योजन दूरी की नदी के मध्य स्थित एक ह्रद । इसकी दक्षिणोत्तर लम्बाई पद्महूद के समान है। हपु० ५.१९४
(२) ऐरावत हाथी का दूसरा नाम । पापु० २.११५ । ऐरावत-(१) जम्बूद्वीप के विदेह आदि क्षेत्रों में सातवां क्षेत्र । यह
कर्मभूमि जम्बूद्वीप की उत्तरदिशा में शिखरी कुलाचल और लवणसमुद्र के बीच में स्थित है । मपु० ४.४९, ६९.७४, पपु० ३.४५-४७, १०५.१५९-१६०, हपु० ५. १४
(२) सौधर्मेन्द्र का हाथी। यह श्वेत, अष्टदन्तधारी, आकाशगामी और महाशक्तिशाली है । इसके बत्तीस मुंह है, प्रत्येक मुँह में आठदांत' प्रत्येक दाँत पर एक सरोवर, प्रत्येक सरोवर में एक कमलिनी, प्रत्येक कमलिनी में बत्तीस कमल, प्रत्येक कमल में बत्तीस दल और प्रत्येक दल पर अप्सरा नृत्य करती है । सौधर्मेन्द्र इसी हाथी पर जिन शिशु को बिठाकर अभिषेकार्थ मेरु पर ले जाता है। मपु० २२.३२-५६, पपु० ७.२६-२७, हपु० २.३२-४०, ३८. २१, ४३, वोवच.
९.९०-९१, १४.२१-२४ ऐरावतकूट-शिखरी कुलाचल का दसवाँ कूट । हपु० ५.१०७ ऐरावती-(१) जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर
के राजा विश्वसेन को रानी। इसका दूसरा नाम ऐरा था। पापु० ५.१०३
(२) सम्भूतरमण वन में बहनेवाली नदी। इसी नदी के किनारे 'मनोवेग विद्याधर हरी हुई चन्दना को छोड़ गया था। मपु० ६२. ३७९-३८०, ७५.४३-४४, हपु० २१.१०२, २७.११९
(३) इन्द्र की अप्सराओं द्वारा किये गये नृत्य में ऐरावत के विद्य न्मय रूप का प्रदर्शन । मपु० १४.१३४ ऐलविल-कुबेर । मपु० ४८.२०
ऐकलेय-राजा दक्ष और उसकी रानी इला का पुत्र, मनोहरी का भाई।
दक्ष ने इसकी बहिन मनोहरी को अपनी पत्नी बना लिया था। इससे असंतुष्ट इसकी माता इसे लेकर दुर्गम स्थान में चली गयी थी । वहाँ उसने इलावर्द्धन नगर बसाकर इसे वहाँ का राजा बनाया था। राजा बनने पर इसने अंग देश में ताम्रलिप्ति नगरी तथा नर्मदा नदी के तट पर माहिष्मती नगरी बसायी थी । अन्त में यह अपने पुत्र कुणिम को
राज्य सौंपकर साधु हो गया था । हपु० १७.२-२२ ऐशान-(१) ऊर्ध्वलोक में स्थित सुख सामग्री सम्पन्न द्वितीय कल्प
(स्वर्ग)। यहाँ जीव उपपाद शय्या पर जन्मते हैं, और वैक्रियिक शरीरी होते हैं । सौधर्म और इस स्वर्ग के इकतीस पटल होते हैं । पदलों के नामों के लिए देखो सौधर्म मपु० ५.२५३-२५४, पपु० १०५.१६६-१६७, हपु० ४.१४, ६.३६
(२) विजयार्घ पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित साठ नगरों में एक नगर । हपु० २२.८८
(३) चण्डवेग द्वारा वसुदेव को प्रदत्त एक विद्यास्त्र । हपु० २५.४८ ऐशानी-एक महाविद्या। यह विद्या रावण को प्राप्त थी। पपु०
७.३३०-३३२ ऐशानेन्द्र-शुभ्र छत्रधारी ईशान स्वर्ग का इन्द्र । मपु० २२.१८, १३.३१, हपु० २.३८
ओ ओज-काव्य के माधुर्य, ओज और प्रसाद इन तीन गुणों में एक गुण ।
यह सहृदयों के मन में उत्साह बढ़ाता है । मपु० ३४.३२ ओलिक-मध्य आर्यखण्ड का एक देश । भरतेश ने इस देश के राजा को
पराजित किया था । मपु० २९.८० ओष्ठिल-अम्बष्ठ देश का स्वामी। यह भरत के विरुद्ध अतिवीर्य की सहायता के लिए ससैन्य आया था । पपु० ३७.२३
औ
औडव-संगीत की चौदह मूर्च्छनाओं के छप्पन स्वरों में पांच स्वरों से
उत्पन्न एक विशिष्ट स्वर । हपु० १९.१६९ औण्ड-इस नाम का एक देश । दिग्विजय के समय भरतेश के सेनापति
ने यहाँ के शासकों को परास्त किया था। मपु० २९.४१, ९३ औवयिक-जीव के पाँच भावों में कर्मोदय से उत्पन्न एक भाव । इसका जब तक उदय रहता है तब तक कर्म रहते हैं और कर्मों के कारण
आत्मा को संसार में भ्रमण करना पड़ता है। मपु० ५४.१५० औदारिक शरीर के पांच भेदों में प्रथम भेद असंख्यात प्रदेशी स्थूल
शरीर । पपु० १०५.१५३ औदासीन्य-मोह के अभाव (उपशम या क्षय) से उत्पन्न सुख । मपु०
५६.४२ औदुम्बरी-भरतेश की सेना ने इस नदी के तट पर विश्राम किया था। मपु० २९.५४
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org