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अविरति-अशोक
४० : जैन पुराणकोश अविरति-कर्मास्रव के पाँच भेदों में दूसरा भेद । इसके बारह भेद है। (छ: इन्द्रिय अविरतियाँ और छः प्राणी अविरतियाँ)। इसके एक सौ
आठ भेद भी होते हैं । मपु० ४७.३१०, वीवच० ११.६६ अव्यय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०९ अव्यायाध-ब्रह्मलोक के निवासी, पूर्वभव के श्रु तज्ञानाभ्यासी, महा
ऋद्धिधारी और ब्रह्मचारी लौकान्तिक देवों का सातवाँ भेद । मपु०
१७.४७-५०, वीवच० १२.२-८ अव्यावाधत्व-सिद्ध जीव के आठ गुणों में एक गुण-अन्य जीवों से
अथवा अजीवों से अबाधित रहना । मपु० २०.२२२-२२३, ४३.९८ इसके लिए "अव्याबाधाय नमः" यह पीठिका-मन्त्र है। मपु०
२.२२२-२२३, ४०.१४, ४३.९८ अशन-आहार के चार भेदों में एक भेद । ये भेद है-अशन, पानक,
खाद्य और स्वाद्य । मपु० ९.४६ अशनविशुद्धि-आहार सम्बन्धी विशुद्धि रखना-नौ प्रकार के पुण्यों में
(नवधाभक्ति) में एक पुण्य (भक्ति) । मपु० २०.८६-८७ अशनि-राम का सहायक, चन्द्रमरीचि विद्याधर का आज्ञाकारी
विद्याधर राजा । पपु० ५४.३६ अशनिघोष-(१) सल्लकी वन का हाथी। मुनि द्वारा सम्बोधे जाने पर
इसने अणुव्रत धारण किये थे। पूर्व वैरी सर्प के डसने से यह मरकर देव हुआ था । मपु० ५९.१९७, २१२-२१८
(२) जीवन्धर द्वारा वश किया गया काष्ठांगार का हाथी । मपु० ७५.३६६-३६९
(३) चमरचंचपुर नगर में उत्पन्न, राजा इन्द्राशनि और उसकी रानी आसुरी का पुत्र । भ्रामरी विद्या सिद्ध करके इसने सुतारा का अपहरण किया था। इसके तीन पुत्र थे-सुघोष, शतघोष और सहस्रघोष । यह युद्ध में अपना रूप द्विगुण कर लेता था। मपु० ६२.२२९-२३४, २७६, पपु० ७३.६३, पापु० ४.१३, ८-१५०, १८२-१९१
(४) मानुषोत्तर के अंजनकूट का निवासी एक देव । हपु० ५.६०४ अशनिघोषक-इस नाम के हाथी के रूप में राजा सिंहसेन का जीव ।
मपु० ५९.२१२ अशनिवेग-(१) विजयाई पर्वत के किन्नरगीत नगर का राजा, अचि
माली और प्रभावती का पुत्र और ज्वलनवेग का अनुज । इसकी पवनवेगा नाम की रानी थी। शाल्मलिदत्ता इसी रानी की पुत्री थी जो वसुदेव से विवाही गयी थी । मपु०७०.२५४-२५५, हपु० ५१.२, १९.८१, पापु० ११.२१
(२) मधु पर्वत पर किष्किधपुर नगर का निर्माता, रथनूपुर नगर का निवासी, विजयाध पर्वत की दोनों श्रेणियों का स्वामी और विजयसिंह का पिता। अपने पुत्र विजय के मारे जाने पर इसने युद्ध में अन्ध्रक को मारा था । अन्त में यह शरद् ऋतु के मेघ को क्षणभर में विलीन होता देखकर राज्य सम्पदा से विरक्त हो गया और अपने पुत्र सहस्रार को राज्य देकर विद्युत्कुमार के साथ श्रमण हो गया। पपु० १.५८, ६.३५५-३५७, ४६१-४६४, ५०२-५०४
(३) जीवन्धरकुमार के शत्रु काष्ठांगारिक का हाथी। मपु० ७५. ६६४-६६७
(४) राजपुर नगर के राजा स्तनितवेग और उसकी रानी ज्योतिवेंगा का पुत्र तथा विद्यु द्वेगा विद्याधरी का अग्रज । श्रीपाल को इसने पर्णलघु विद्या से रलावर्त पर्वत के शिखर पर छोड़ा था । मपु० ४७.
२१-३० अशय्याराधिनी-परमकल्याण रूप और अनेक मंत्रों से परिष्कृत एक विद्या । धरणेन्द्र ने यह विद्या नमि और विनमि को दी थी। हपु०
२२.७०-७३ अशरणानुप्रेक्षा-मुक्तिमार्ग के पथिक की दूसरी अनुप्रेक्षा । आयु-कर्म के
समाप्त होने पर मृत्यु के मुख में जानेवाले प्राणी को रक्षा करने में देव, इन्द्र, चक्रवर्ती और विद्याधर आदि समर्थ नहीं है और मणि, मंत्र, तंत्र तथा औषधियाँ आदि भी व्यर्थ है। यथार्थ में अर्हन्त, सिद्ध, साधु, केवली भाषित धर्म, तप, दान, जिनपूजा, जप, रलत्रय आदि ही शरण है। ऐसा चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है। मपु० ११.१०५, पपु० १४.२३७-२३९, पापु० २५.८१-८६, वीवच०
११.१४-२२ अशुच्यनुप्रेक्षा-शरीर में अशुचिता को भावना । शरीर मलस्रावी नव
द्वारों से युक्त अशुचि है । रज वीर्य से उत्पन्न मल-मूत्र, रक्त-मांस का घर है। राग-द्वेष, काम, कषाय आदि से प्रभावित है । चन्दन आदि भी इसके संसर्ग से अपवित्र हो जाते हैं। शरीर की ऐसी अशुचिता का चिन्तन करना तीसरी अशुच्यनुप्रेक्षा है। मपु० ११.१०७, पपु०
१४.२३७, पापु० २४.९६-९८, वीवच० ११.५४-६३ अशुभकर्म-दुःखोत्पादक कर्म । दान-पूजा, अभिषेक और तप आदि शुभ ___कार्य ऐसे कर्मों के नाशक होते हैं । पपु० ९६.१६ अशुभश्रुति-दुःश्रुति-अनर्थदण्डवत नामक तीसरे गुणव्रत के पांच भेदों में इस नाम का एक भेद । यह हिंसा तथा राग आदि को बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओं के सुनने तथा दूसरों को सुनाने से पापबन्ध का कारण
होती है। हपु० ५८.१४६, १५२ अशोक-(१) विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी का एक नगर । हपु० २२.८९
(२) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देश की वीतशोका नगरी का राजा । इसकी रानी श्रीमती से श्रीकान्ता नामा पुत्री हुई थी । हपु०६०६८-६९ महापुराण के अनुसार विदेहक्षेत्र के पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी का राजा और रानी सोमश्री से उत्पन्न श्रीकान्ता का पिता । मपु० ७१.३९३-३९४
(३) एक वन-जीवन्धरकुमार की दीक्षास्थली। मपु० ७५. ६७६-६७७
(४) अयोध्या नगरी के सेठ वज्रांक और उसकी प्रिया मकरी का ज्येष्ठ पुत्र, तिलक का सहोदर । ये दोनों भाई द्य ति नामक मुनि के पास दीक्षित हो गये थे। इन मुनियों को गन्तव्य स्थान तक पहुँचने में असमर्थ देख भामण्डल ने इनके आहार की व्यवस्था की थी । पपु० १२३.८६-१०२
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