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अवघाटक- अविपाकजा
अवघाटक - यष्टि विशेष (माला) । इसके बीच में एक बड़ा मणि तथा उसके दोनों ओर क्रमशः घटते हुए मोती होते हैं । मपु० १६.५२-५३ अवतंस - कान का एक आभूषण । हपु० ४३. २४ अवतंसिका - भरतेश की इस नाम की एक रत्नमाला । मपु० ३७.१५३ अवतारक्रिया — दीक्षान्वय क्रियाओं में प्रथम क्रिया और गर्भान्वय की क्रिपाओं में ३८वीं क्रिया मिथ्यात्वी पुरुष के समीचीन मार्ग की ओर सन्मुख होने पर उसका किसी धर्मोपदेशक से धर्म श्रवण कर तत्त्वज्ञान में अवतरित होना । मपु० ३८.६०, ३९.७-३५ अवद्वार - क्षुल्लक - ऐसा व्यक्ति जो न गृहस्थ होता है और न साधु । पपु० ११.१५५
अथद्वारगति - एक नारद । यह साघु वेषधारी गृहस्थ था । लवणांकुश इसी से राम और लक्ष्मण का वृत्तान्त सुनकर उनसे युद्ध करने को तैयार हुआ था । पपु० ८१.६३, १०२.२-५२
- अवधिज्ञान - ज्ञान के पाँच भेदों में तीसरा भेद । इसके तीन भेद होते हैं- देशावधि, सर्वाविधि और परमावधि । ये तीनों अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं । मपु० २.६६, हपु०८.१९७, १०.१५२ अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान अवस्थित और अनवस्थित छ भेद भी इसके होते हैं। इस ज्ञान से दूसरों की अन्तः प्रवृत्तियों का सहज ही बोध हो जाता है । इन्द्र इसी ज्ञान से तीर्थकरों के गर्भ, जन्म आदि को जानते हैं । मपु० ६.१४७-१४९, १७.४६, हपु० २.२६, ८.१२७ दे० ज्ञान अवधिसोचन अवधिज्ञानी वृषभदेव के संघ में नौ हजार ऐसे मुनि थे । मपु० ३.२१०, हपु० १२.७४
- अवध्यत्व-द्विज के दस अधिकारों में इस नाम का एक अधिकार । गुणों की अधिकता के कारण अवध्यता का यह अधिकार ब्राह्मणों को प्राप्त था क्योंकि उनका अन्तःकरण स्थिर होता था । मपु० ४०. १७६, १९४, दे० द्विज
- अवध्या - (१) विदेह के गन्धमालिनी देश की राजधानी । मपु० ६३. २०८-२१७, हपु० ५.२६३
(२) रावण को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३२९-३३२ अवनद्ध-तत, अवनद्ध, घन और सुषिर इन चार प्रकार के वाद्यों में चमड़े से मड़े मुग आदि वाच । प० २४.२०-२१, १९.१४२-१४३ - अवति - एक विषय (देश) । इस देश को रचना इन्द्र ने की थी । बिहार करते हुए वृषभदेव यहाँ आये थे भरतेश के सेनापति ने इस देश को अपने अधीन किया था। इसका दूसरा नाम उज्जयिनी था । मपु० १६.१४१-१५२, २५.२८०, २९.४०, ७१.२०६, ०२२. १३८, १४५
अर्वान्तिकामा — इस नाम की एक नदी । भरत चक्रवर्ती की सेना ने इस नदी पर विश्राम किया था। मपु० २९.६४
• अवन्तिसुन्दरी - वसुदेव की रानी । इससे वसुदेव के तीन पुत्र हुए थे — सुमुख, दुर्मुख और महारथ पु० ११.७, ३२.३५, ४८.६४ अमौर्य-छः बाह्य तपों में दूसरा बाह्य तप दोषशमन, स्वाध्याय और
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जैन पुराणकोश ३९
ध्यान की सिद्धि के लिए भूख से न्यून आहार करना, अथवा नाम मात्र का आहार लेना। मपु० १८.६७-६८, २०.१७५, पपु० १४. ११४-११५, पु० १४.२२, बीच० ६.३२-४१
अवयव - तालगत गान्धर्व के बाईस भेदों में एक भेद । हपु० १९. १४९-१५२
अवरोही संगीत के स्थायी, संचारी, आरोही और अबरोही इन चार वर्णों में चौथा वर्ण । पपु० २४.१०
अवर्णवाद - दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव का हेतु केवली, श्रुति, संघ, धर्म तथा देव में झूठे दोष लगाना । हपु० ५८.९६ अवलोकिनी - रावण को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३२९-३३२ अवशिष्ट - भवनवासी देवों का इन्द्र । वीवच १४.५५-५८
अवष्ट - एक देश । लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था । पपु० १०१.८२-८६
अवसंज्ञ - अनन्तानन्त परमाणुओं का समूह । हपु० ७.३७ अवसन्न -ज्ञान, चारित्र आदि से भ्रष्ट मुनि । मपु० ७६. १९४ अवसर्पिणी-व्यवहार काल का एक भेद । प्राणियों के रूप, बल, आयु, देह और सुख में अवसर्पण (क्रमश: ह्रास होने से इस नाम से अभिहित । यह छः विभागों में विभाजित है । विभागों के नाम हैंसुषमा- सुषमा, सुषमा, सुषमा दुःखमा, दुधमा- सुषमा, दुखमा और दुःषमा- दुःषमा । इसका प्रमाण दस कोड़ा कोड़ी सागर होता है । इसके छहों भेदों में आदि के तीन भेदों का प्रमाण क्रमशः चार, तीन और दो कोड़ाकोड़ि सागर है। चौथे काल का प्रमाण ४२ हजार कम एक कोड़ाकोड़ि सागर और पाँचवें तथा छठे काल का प्रमाण इक्कीस - इक्कीस हजार वर्ष होता है। यह उत्सर्पिणी काल के बाद आता है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों शुक्ल और कृष्णपक्ष की भाँति बढ़ते घटते हैं । मपु० ३.१४-२१, पपु० २०.७८-८२, हपु० १.२६, ७.५६-६२, बीवच० १८.८५ १२५
अवाय -- (१) मतिज्ञान के अवग्रह आदि चार भेदों में तीसरा भेदइन्द्रियों और मन से उत्पन्न निर्णयात्मक यथार्थ ज्ञान । हपु० १०.१४६-१४७
(२) राजा एक कार्य - परराष्ट्रों से अपने सम्बन्ध का विचार करना । मपु० ४६.७२
अविज्ञेय — सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१८० अविद्या - मिथ्याज्ञान- अतत्त्वों में तस्व-बुद्धि । मपु० ४२.३२ अनिवार्य - तालगत गान्धर्व के बाईस भेदों में एक भेद । पु० १९.
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अविध्वंस - सूर्यवंशी एक नृप । इस वंश में वीतभी के बाद यह नृप हुआ था । पपु० ५.४ १०, हपु० १३.११ अविपाकजा - सविपाक और अविपाक के भेद से निर्जरा के दो भेदों में दूसरा भेद । उदय में अप्राप्त कर्मों की तपश्चरण आदि उपायों से समय से पूर्व उदीरणा द्वारा की गयी कर्मों की निर्जरा । हपु० ५८.२९३ २९५, वीवच० ११.८१
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