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वेदनोपगमोद्भवध्यान - वैजयन्ती
बंदनोपरामोद्भवध्यान आतंध्यान यह वेदना के उत्पन्न होने पर होता है । इस ध्यान में वेदना नष्ट करने के विचार बार-बार उत्पन्न होते हैं । मपु० २१.३३, ३५
वेदवती मृगालकुण्ड नगर के श्रीमृति पुरोहित और उसकी स्त्री सरस्वती की पुत्री । इसी नगर के राजकुमार शम्भु ने इसके पिता को मारकर बलपूर्वक इसके साथ कामसेवन किया था। शम्भु को इस कुचेष्टा के कारण इसने आगामी पर्याय में शम्भु के वध के लिए उत्पन्न होने का निदान किया था। घर आये मुनि की हँसी करने पर पिता के समझाने से यह श्राविका हो गयी थी। आयु के अन्त में आर्थिका हरिकान्ता से दीक्षा लेकर इसने कठिन तप किया तथा मरकर यह ब्रह्म स्वर्ग गई। शम्भु नरक गया और वहाँ से निकल कर तिर्यंचगति में भ्रमण करने के पश्चात् प्रभासकुन्द हुआ और तप कर स्वर्ग गया। वहाँ से चयकर वह लंका में राजा रत्नश्रवा और केकसी का पुत्र रावण हुआ। वेदवती स्वर्ग से चयकर राजा जनक की पुत्री सीता हुई । यही सीता अपने पूर्वभव में किये निदान के अनुसार रावण के क्षय का कारण बनी। इसने इस पर्याय में मुनि सुदर्शन और आर्यिका सुदर्शना दोनों भाई-बहिन को एकान्त में बातचीत करते हुए देखकर अवर्णवाद किया था इसी के फलस्वरूप सोता की पर्याय में इसका भी अवर्णवाद हुआ। पपु० १०६.१३५१७८, २०८, २२५-२३१
वेदविद्भरतेश और सोमेंद्र द्वारा स्तुत नृपमदेव का एक नाम । ०२४.३९, २५.१४६
मपु०
वेदवेद्य - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४६ वेबसामपुर एक नगर वासुदेव ने यहाँ के राजा कपिलको युद्ध
में जीतकर उसकी पुत्री कपिला को विवाहा था । हपु० २४.२५-२६ वेदांग -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४६ वेद्य - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४६ वेधा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१०२ वेलघर - एक पर्वत । इसी पर्वत पर इसी नाम का एक नगर भी था।
यहाँ का राजा विद्याधर समुद्र था। इसने अपनी सत्यश्री, कमला, 'गुणमाला और रत्नचूला इन चार पुत्रियों का विवाह लक्ष्मण के साथ किया था । पपु० ५४.६४-६५, ६८-६९
लम्बकूट मानुषोत्तर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम कोण में निषधाचल का एक कूट। यहाँ वरुणकुमारों का अधिपति देव अतिवेम्ब रहता है। हपु० ५.६०९
वेलांजन - भवनवासी देवों के बीस इन्द्रों और बीस प्रतीन्द्रों में उन्नीसवाँ इन्द्र और प्रतीन्द्र । वीवच० १४.५६
बैकुण्ठ -- कृष्ण का अपर नाम । हपु० ५०.९२ कृतान्तकृत्सीयमेन्द्र द्वारा स् वृषभदेव का एक नाम ५० २५. १६८
वैक्रियिक- औदारिक आदि पाँच शरीरों में दूसरा शरीर । यह औदारिक
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जैन पुराणकोश २८०
की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होता है। देवों और नारकियों का ऐसा ही शरीर होता है । मपु० ५.२५५, ९.१८४, पपु० १०५.१५२ वैगारि - एक विद्याधर राजा । चण्डवेग ने इसे पराजित किया था । हपु० २५.६३
जयन्त - ( १ ) जम्बूद्वीप का एक द्वार । यह आठ योजन ऊँचा, चार योजन चौड़ा, नाना रत्नों की किरणों से अनुरंजित और वज्रमय दैदीप्यमान किवाड़ों से युक्त हैं। हपु० ५.३९०-३९१
(२) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का छठा नगर । हपु०
२२.८६
(३) विजयार्घ पर्वत को दक्षिणश्रेणी का दसवाँ नगर । मपु १९.५०, ५३ हपु० २२.९४
(४) दक्षिण समुद्र का तटवर्ती एक महाद्वार । भरतेश ने इस द्वार के निकट अपनी सेना ठहराई थी। इस क्षेत्र का स्वामी वरतनु देव था । मपु० २९.१०३ हपु० ११.१३
(५) चक्रवर्ती भरतेश के एक महल का नाम । मपु० ३७.१४७ (६) पाँच अनुतर विमानों में एक विमान । मपु० ५१.१५,
पपु० १०५.१७० - १७१, हपु० ६.६५
(७) समुद्र का एक गोपुर । लक्ष्मण ने यहाँ वरतनु देव को पराजित करके उससे कटक, केयर, डामणिहार और कटिसूत्र भेंट में प्राप्त किये थे । मपु० ६८.६५१-६५२
(८) भरतक्षेत्र का एक नगर रामपुरी से चलकर राम इसी नगर के समीप ठहरे थे । पपु० ३६.९-११
(९) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गन्धमालिनी देश के वीतशोक नगर का राजा । इसकी रानी सर्वश्री तथा संजयन्त और जयन्त पुत्र थे । भोगों से विरक्त होने पर इसने संजयन्त के पुत्र वैजयन्त को राज्य देकर पिता के साथ स्वयंभू मुनि से संयम धारण कर लिया था । यह कषायों का क्षय करके अन्त में केवली हुआ । मपु० ५९.१०९-११३, हपु० २७.५-८
(१०) जम्बूद्वीप-विक्षेत्र के गन्धमालिनी देश में वीतशोकपुर के स्वामी का प्रपौत्र और संजयन्त का पुत्र । मपु० ५९.१०९-११२ (११) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेश में स्थित पुष्कलावती देश की पुण्डरी किणी नगरी के राजा वज्रसेन और रानी श्रोकान्ता का पुत्र ।
मपु० ११.८-१०
(१२) समवसरण - भूमि के तीसरे कोट के दक्षिण द्वार का प्रथम नाम । हपु० ५७.५८ वैजयन्ती - ( १ ) विजयार्धं पर्वत की दक्षिण श्रेणी की तैंतीसवों नगरी । यहाँ का राजा बलसिंह था । मपु० १९.५० हपु० ३०.३३
(२) समवसरण के सप्तपर्ण वन की छः वापियों में एक वापी । हपु० ५७.३३
(३) पश्चिमविदेहक्षेत्र में सुवप्रा देश की राजधानी । हपु० ५. २५१, २६३
(४) एक शिविका - पालकी
वन (सहेतुकबन गये थे। मपु० ६५.३३, पापु० ७.२६
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तीर्थंकर भरनाथ इसी में बैठकर
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