________________
३८६ : जैन पुराणकोश
वृषसेना- वेदनीय
वृषसेना-इन्द्र की सात प्रकार की सेना का एक भेद । इसमें सैनिक
बैलों पर सवार होते हैं। मपु० १०.१९८-१९९ वृषाधीश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.११६ वृषानन्त-एक कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.२८ वृषायुष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११६ वृषोद्भव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.११६ वृष्यरसत्याग-ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाओं में पांचवीं भावना ।
इसमें शक्तिवर्द्धक दूध आदि गरिष्ठ-रसों का त्याग किया जाता है ।
मपु० २०.१६४, दे० ब्रह्मचर्य वहद्गृह-विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी का बाबीसवाँ नगर। हपु०
२२.९५ वेगवती-(१) भरतक्षेत्र को एक नदी। पार्श्वनाथ के पूर्वभव का जीव 'वज्रघोष हाथी इसी नदी की कीचड़ में फंसा था तथा कमठ के
जीव कुक्कुट-सर्प के द्वारा डस लिए जाने से यहीं मरा था। मपु० ७३.२२-२४, हपु० ४६.४९
(२) आदित्यपुर के राजा विद्याधर विद्यामन्दर की रानी । यह श्रीमाला की जननी थी। पपु० ६.३५७-३५८
(३) एक विद्याधरी। इसने चक्रवर्ती हरिषेण का अपहरण किया था। मपु० ८.३५३
(४) अरिजयपुर नगर के राजा विद्याधर वह्निवेग की रानी। यह आहल्या की जननी थी। पपु० १३.७३
(५) विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणी के स्वर्णाभ नगर के राजा 'विद्याधर मनोवेग और रानी अंगारवती की पुत्री। यह मानसवेग को बहिन तथा वसुदेव की रानी थी। जरासन्ध के अधिकारियों ने वसुदेव को जब चमड़े की भाथड़ी में बन्द कर पहाड़ की चोटी से नीचे गिराया था उस समय इसी ने वसुदेव को संभाला था तथा पर्वत के तट पर ले जाकर भाथड़ी से उसे बाहर निकाला या । हपु०
२४.६९-७४, २६.३२-४० वेगवान्-राजा वसुदेव तथा रानी वेगवती का पुत्र । वायुवेग इसका
भाई था । हपु० ४८.६० बेगावती-एक विद्या । इस विद्या को विद्याधर अर्ककीर्ति के पुत्र
अमिततेज ने सिद्ध किया था। मपु० ६२.३९८ वेगिनी-नाकार्द्धपुर के स्वामी विद्याधर मनोजव की रानी । महाबल __ को यह जननी थी। पपु० ६.४१५-४१६ घेणा-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी। दिग्विजय के समय भरतेश
के सेनापति ने यहाँ आकर दक्षिण के राजाओं को उनकी आज्ञा प्रचारित को थो । मपु० २९.८७ वेण-(१) मानुषोत्तर पर्वत के पूर्व-दक्षिण कोण में स्थित रत्नकूट का एक देव । यह नागकुमारों का स्वामी था। हपु० ५.६०७
(२) मेरु पर्वत की दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित शाल्मली वृक्ष की शाखाओं पर बने भवनों का निवासी एक देव । हपु० ५.१९०
(३) विजयाध पर्वत की उत्तरथणी का अड़तीसवाँ नगर । हपु० २२.८९
(४) असुरकुमार आदि दस जाति के भवनवासी देवों के बीस इन्द्र और बीस प्रतोन्द्रों में पाँचवाँ इन्द्र एवं प्रतीन्द्र । यह तीर्थंकर महावीर के केवलज्ञान की पूजा के लिए महीतल पर आया था। वीवच.
१४.५४,५७-५८ वेणुवारी-(१) यादवों का पक्षधर एक अर्धरथ नृप । हपु० ५०.८५
(२) शाल्मनी वृक्ष का निवासी एक देव । हपु० ५.१८८-१९० (३) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३९
(४) मानुषोत्तर पर्वत के पूर्वोत्तर कोण में स्थित सर्वरत्नकूट का स्वामी सुवर्णकुमार जाति का भवनवासी देव । हपु० ५.६०८ वेणुदेव-भवनवासी देवों का पाँचवाँ इन्द्र एवं प्रतोन्द्र । वीवच०
१४.५४ वेणुधारी-असुरकुमार आदि दस जाति के भवनवासी देवों के बीस इन्द्र
और बीस प्रतीन्द्रों में छठा इन्द्र और प्रतीन्द्र । यह भगवान महावीर के केवलज्ञान की पूजा के लिए महीतल पर आया था। वीवच०
१४.५४, ५७-५८ बेणुमती-भरतक्षेत्र के पूर्व आर्यखण्ड की एक नदी । द्विग्विजय के समय
भरतेश की सेना ने इसी नदी के किनारे-किनारे जाकर वत्स देश पर
आक्रमण किया था। मपु० २९.६० बेताली-एक विद्या । विद्याधर अमिततेज ने यह विद्या सिद्ध की थी।
इसी विद्या से साहसगति ने सुग्रीव का रूप धारण कर उसकी प्रिया
का अपहरण किया था। मपु० ६२.३९८, पपु० ४९.२४-२८ वेत्रवन-एक वन । रुद्रदत्त कौर चारुदत्त इसी वन को पार कर टकण
देश गये थे। हपु० २१.१०२-१०३ वेत्रासन-मूढ़े के समान आकार का आसन । अधोलोक का आकार इसो
प्रकार का है। हपु०४.६ वेद-(१) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । हपु० १.८३
(२) वेदनीय कर्म-परिणाम । ये तीन प्रकार के होते हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद। मपु० २०.२४५
(३) निर्दोष श्रु त । इसके दो भेद हैं-आषवेद और अनार्षवेद । इनमें भगवान ऋषभदेव द्वारा दर्शाया गया द्वादशांग-श्रुत आर्षवेद और हिंसा आदि की प्रेरणा देनेवाले शास्त्राभास अनार्षवेद माने गये है। हपु० २३.३३-३४, ४२-४३, १४० देवना-(१) तीसरी-नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार में तप्त-इन्द्रकबिल की
दक्षिण दिशा में स्थित महानरक । हपु० ४.१५४ . (२) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के बीस प्राभृतों में कर्मप्रकृति
चौथे प्राभृत के चौबीस योगद्वारों में दूसरा योगद्वार । हपु० १०.८१
८२, दे० अग्रायणीयपूर्व वेदनीय-सूख और दुःख देनेवाला एक कर्म । इसकी उत्कृष्ट स्थिति
तोस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति बारह मुहर्त तथा मध्यम स्थिति विविध प्रमाण की होती है। हपु० ३.९६, ५८.२१६, वीवच० १६.१४५, १५६, १५९-१६०
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org