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विजपाकुमार-विदारणक्रिया
जैन पुराणकोश : ३६५
(मातृपक्षाश्रित) विद्याएँ आराधना करने से और तीसरी तपश्चरण से प्राप्त होती हैं । धान्य बिना बोये उत्पन्न होते हैं और नदियाँ बालू रहित होती है। मपु० १८.१७०-१७६, २०८, १९.८-२०, ३२- ५२, ७८-८७, १०७, ३१.४३ पपु० ३.३८-४१, ३१८-३३८, हपु० ५.२०-२८, ८५-१०१, पापु० १५.४-६
(४) ऐरावत क्षेत्र के मध्य में स्थित एक पर्वत । इसके नौ कूट है-सिद्धायतनकूट, उत्तरार्द्धकूट, तामिस्रगुहकूट, मणिभद्रकूट, विजयार्धकुमारकुट, पूर्णभद्रकूट, खण्डकप्रपातकूट, दक्षिणार्धकट और वैश्रवणकट । ये सब कूट भरतक्षेत्र के विजयाध पर स्थित कटों के तुल्य है । अन्य रचना भी भरतक्षेत्र के समान हो होती है। हपु० ।
५.१०९-११२ विजयाईकुमार-(१) जम्बूद्वीप भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत का पाँचवाँ कूट । हपु० ५.२७
(२) ऐरावतक्षेत्र के विजयार्घ पर्वत का पाँचवाँ कूट । हपु० ।
(३) विजयाध पर्वत का अधिष्ठाता देव । इसने झारी, कलशजल, सिंहासन, छत्र और चमर भेंट करते हुए चक्रवर्ती भरतेश की अधीनता
स्वीकार की थी। मपु० ३७.१५५, हपु० ११.१८-२० विजयापुरी-पूर्व विदेहक्षेत्र के पद्मकावती देश की राजधानी । हपु०
५.२४९-२५०, २६१-२६२ विजयावती-(१) विदेहक्षेत्र का एक वक्षार पर्वत । इसका अपर नाम विजयावान् है । मपु० ६३.२०३
(२) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र की नगरी । पपु० १०६.१९० विजयावलो-काकन्दी नमरी के राजा रतिवर्धन के मंत्री सर्वगुप्त की
स्त्री । इसने राजा को मारने का मंत्री का कूट रहस्य राजा से प्रकट प्रकट कर दिया था। यह मंत्री की अपेक्षा राजा को अधिक चाहती थी। इसके कहने से राजा सावधान रहने लगा। इसके राजा से भेद प्रकट कर देने से इसका पति इससे द्वेष करने लगा। फलस्वरूप "यह न तो राजा की हो सकी और न पति की ही” यह ज्ञान इसे होते ही इसने शोकयुक्त होकर अकाम तप किया। आयु के अन्त में यह मरकर राक्षसी हुई। तीव्र वैर-वश इसने रतिवर्धन पर उसको
मुनि अवस्था में घोर उपसर्ग किये थे। पपु० १०८.७-११, ३५-३८ विजयावह-राजा श्रेणिक एक पुत्र । पपु० २.१४५ ।। विजयावान्-(१) हैमवत् क्षेत्र के मध्य में स्थित वतुलाकार विजया पर्वत । हपु० ५.१६१
(२) पश्चिम विदेहक्षेत्र का एक वक्षारगिरि। इसका अपर नाम विजयावती था। मपु० ६३.२०३, हपु० ५.२३० विजयाश्रिता-चक्रवर्तियों की दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन
चार जातियों में दूसरी जाति । मपु० ३९.१६७, १६८ विजर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२४ विजितान्तक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१२३
विजिष्णु-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३५ विज्ञान-दान दातार के सात गुणों में चौथा गुण । इसमें दान के पात्र
और देय आदि के क्रम का ज्ञान अपेक्षित होता है। मपु० २०.८२,
८४ दे० आहारविधि विज्ञानवादी-जीव और विज्ञानवाद के विवेचक । ये अपने अनुभव के
अतिरिक्त अन्य किसी बाह्य ज्ञेय की सत्ता नहीं मानते । पृथक् रूप से उपलब्ध न होने के कारण ये जीव नामक कोई पदार्थ नहीं मानते । उसे अपने कर्म-फल का भोक्ता नहीं मानते । इन्हें परलोक का भय नहीं होता । ये जगत् को स्वप्न के समान मिथ्या मानते हैं। मपु०
५.३८-४३ विटप-रावण का सामन्त । गजरथ पर बैठकर इसने राम की सेना से
युद्ध किया था। पपु० ५७.५७-५८ वितत-चमड़े से मढ़े हुए तबला, मृदंग आदि वाद्य । हपु० ८.१५९ वितता-भरतक्षेत्र की एक नदी । इसी नदी के पश्चिम में भरतेश और ___ बाहुबली की सेनाओं में युद्ध हुआ था । हपु० ११.७९ वितर्क-श्रत (शास्त्र) । मपु० २१.१७२ वितस्ति-बारह अंगुल लम्बाई का प्रमाण । कायोत्सर्ग के समय दोनों
पैरों के अग्रभाग में एक वितस्ति प्रमाण का अन्तर रखा जाता है।
मपु० १८.३, हपु० ७.४५ वितापि-रावण का सामन्त । यह युद्ध में राम के सामन्त विधि के द्वारा
गदा प्रहार से मारा गया था । पपु०६०.२० विव-(१) वल्कलधारी एक तापस । यह वृषभदेव के साथ दीक्षित हुआ
था किन्तु अज्ञानवश लिए हुए व्रत से च्युत होकर तापस बन गया ___था। पपु० ४.१२६
(२) राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का सातवां पुत्र । पापु० ८.१९३ विबग्धनगर-एक नगर । राजा प्रकाशसिंह और रानी प्रवरावली का
पुत्र राजा कुण्डलमण्डित यहाँ का शासक था। पपु० २६.१३-१५ विदग्धा-राजा विभीषण की प्रधान रानी । विभीषण के कहने पर इसने
राम के पास जाकर उनसे अपने घर चलने का सविनय निवेदन किया
था । पपु० ८०.४६-४८ विदर्भ-(१) वृषभदेव के समय का इन्द्र द्वारा निर्मित एक देश । वृषभ
देव यहाँ विहार करते हुए आये थे। कुण्डलपुर इसी देश का नगर था। इसी देश में वरदा नदी के तट पर राजा कुणिम ने कुण्डिनपुर नगर बसाया था। मपु० १६.१५३, २५.२८७, ७१.३४१, हपु० १७.२३
(२) तीर्थकर पुष्पदन्त के मुख्य गणघर । मपु० ५५.५२ विवर्भा-भगलि देश के राजा सिंहविक्रम की पुत्री। यह भगीरथ की
जननी थी। मपु० ४८.१२७ विदांवर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४६ विवारणक्रिया-साम्परायिक आस्रव को अठारहवीं क्रिया । इसमें दूसरों
के द्वारा आचरित पापपूर्ण क्रियाओं को प्रकट किया जाता है । हपु० ५८.७६
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