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________________ वासवीर्य विकलेत्रिय भरतेश के सैनिक इसे पार करके असुरघूपन पर्वत पर ठहरे थे । मपु० २९.७० वासवीर्य - समवसरण के तीसरे कोट में स्थित पूर्व द्वार के आठ नामों में सातवाँ नाम । पु० ५७.५७ बासुकि (१) सम्यका पुष 1 ०५२.३७ (२) कुण्डलगिरि का दक्षिण दिशा में विद्यमान महाप्रभकूट का निवासी देव । हपु० ५.६९२ (३) कुरुवंशी एक नृप । हपु० ४५.२६ (४) समुद्र विजय के छोटे भाई राजा धरण का ज्येष्ठ पुत्र | हपु० ४८.५० वासुदेव - ( १ ) नवें नारायण कृष्ण । मपु० ७१.१६३ हपु० ४३.९४ दे० नारायण (२) अनागत सोलहवें तीर्थंकर का जीव । मपु० ७६.४७३ वासुपूज्य – अवसर्पिणी काल के दुःषमा- सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न काय एवं बारहवें तीर्थकर ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चम्पानगर के राजा वसुपूज्य के पुत्र थे। इनका इक्ष्वाकुवंश और काश्यपगोत्र था। इनकी माँ जयावती थी । ये आषाढ़ कृष्ण षष्ठी के दिन यातभि नक्षत्र में सोलह स्वप्नपूर्वक गर्भ में आये थे। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चदुर्दशी इनका जन्म दिन था । सौधर्मेन्द्र ने सुमेरु पर्वत पर क्षीरसार के जल से अभिषेक करके इनका "वासुपूज्य" नाम रखा था । ये सत्तर धनुष ऊँचे थे। बहत्तर लाख वर्ष की इनकी आयु थी । शरीर कुकुम के समान कान्तिमान था । कुमारकाल के अठारह लाख वर्ष बीत जाने पर संसार से विरक्त होकर जैसे ही इन्होंने तप करने के भाव किये थे कि लौकान्तिक देवों ने आकर इनकी स्तुति की थी। इन्होंने इनका दीक्षाकल्याक मनाया था । पश्चात् पालकी पर बैठकर ये मनोहर नाम के उद्यान में गये थे । वहाँ एक दिन के उपवास का नियम लेकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में ये दीक्षित हुए। इनके साथ छः सौ छिहत्तर राजाओं ने भी बड़े हर्ष से दीक्षा ली थी । राजा सुन्दर ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर ये मनोहर उद्यान में पुनः आये । वहाँ कदम्ब वृक्ष के नीचे माघशुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ । इनके संघ में धर्म को आदि लेकर छियासठ गणधर, बारह सौ पूर्वाधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पाँच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छः हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रियाऋद्धिधारी, छः हजार मन:पर्ययज्ञानी और चार हजार दो सौ वादी मुनि थे । एक लाख छ हजार आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव देवियाँ तथा तिर्यञ्च थे। ये आर्यक्षेत्र में विहार करते हुए चम्पा नगरी आये थे । यहाँ एक वर्ष रहे । एक मास की आयु शेष रह जाने पर योग निरोध कर रजतमालिका नदी के किनारे मनोहर - उद्यान में ये पर्यंकासन से स्थिर हुए । भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन सायंकाल के Jain Education International पुराणको ३५९ समय विशाखा नक्षत्र में चौरानवें मुनियों के साथ इन्होंने मुक्ति प्राप्त की थी। दूसरे पूर्वभव में ये पुष्करार्ष द्वीप के पूर्व मे संबंधी वत्सकावती देश के रत्नपुर नगर के राजा पद्मोत्तर तथा प्रथम पूर्वभव में महाशुक स्वर्ग में देव हुए थे मपु० २.१२०-१३४, ५८.२०५३, पपु० ५.२१४, हपु० १.१४, ६०.३९४-३९८, वीवच० १८.१०११०६ वासुवेग — जरासन्ध का एक पुत्र । हपु० ५२.३९ वास्तुक्षेत्र- प्रामाणातिक्रमपरिग्रहपरिमाणव्रत का दूसरा अतीवार । यह गृह तथा क्षेत्र (खेत) के किये हुए प्रमाण का उल्लंघन करने से उत्पन्न होता है । हपु० ५८. १७६ वास्तुविद्या देव मन्दिरों और मनुष्यों के आवास गृहों के बनाने की कला । मपु० १६.१२२ वाहन -- (१) ग्रामों का एक भेद । तीर्थंकर वृषभदेव के समय में पर्वतों पर बसे हुए ग्राम " वाहन" नाम से जाने जाते थे । पापु० २.१६१ (२) पारिव्राज्य क्रियाओं से सम्बन्धित चौबीसवाँ सूत्रपद । इसके अनुसार वाहनों का त्याग करके तपश्चरण करनेवाला कमलों के मध्य में चरण रखने के योग्य हो जाता है । मपु० ३९.१९६५, १९३ वाहिनी (१) सेना का एक भेद तीन गुल्म सेना का एक दल इसमें इक्यासी रथ, इतने ही हाथी, चार सो पाँच पयादे तथा इतने ही घोड़े ही रहते हैं । पपु० ५६.२-५, ८ (२) नदी के अर्थ में व्यहृत शब्द । हपु० २.१६ विकचा - चूलिका नगरी के राजा चूलिक की रानी। इसके सौ पुत्र थे। कीचक इसी का पुत्र था । हपु० ४६.२६-२७, पापु० १७.२४५ २४६ विकचोत्पला - समवसरण के चम्पक वन की छः वापियों में पाँचवीं वापी । हपु० ५७.३४ विकट - (१) पाँचवें नारायण पुरुषसिंह के पूर्वभव का नाम । पपु० २०. २०६, २१० (२) दशानन के पक्षधर राजाओं में एक राजा । इन्द्र-विद्याधर को जीतने के लिए रावण के साथ यह भी गया था । मपु० १०.३६ ३७ (३) राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का अट्ठाईसवाँ पुत्र । पापु०८.१९६ विकासे रहित अर्थ और काम सम्बन्धी कथाएं (स्त्रीचा राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा) । ये पाप के आस्रव का कारण होती हैं । मपु० १.११९ विकर्ण - कर्ण का छोटा भाई । यह कौरवों का पक्षधर था। कौरवों और पाण्डवों के युद्ध में अर्जुन ने इसे युद्ध में मार डाला था। पापु० १८.१०५-१०८ विकलंक -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१९४ विकलेन्द्रिय- दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीव। ये मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं । हृपु० ५.६३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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