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________________ ३३८: जैन पुराणकोश लोकचक्षु-लोकाकाश लम्बाई चौदह रज्जु इसमें सात रज्जु सुमेरु पर्वत के नीचे तनुवातवलय तक और सात रज्जु ऊपर लोकाग्रपर्यन्त तनुवातवलय तक है । चित्रा पृथिवी से आरम्भ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवी के अधोभाग में समाप्त होता है। इसके आगे दसरा आरम्भ होकर वालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है। इसी प्रकार तीसरा राजू पंकप्रभा के अधोभाग में, चौथा धूमप्रभा के अधोभाग में, पाँचवाँ तमःप्रभा के अधोभाग में. छठा महातमःप्रभा के अन्तभाग में तथा सातवां राज लोक के तलभाग में समाप्त होता है । रत्नप्रभा प्रथम पृथिवी के तीन भाग हैं-खर, पंक और अब्बहुल । इनमें खर भाग सोलह हजार योजन, पंकभाग चौरासी हजार योजन और अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है। ऊर्ध्व लोक में ऐशान स्वर्ग तक डेढ़ रज्जु, माहेन्द्र स्वर्ग तक पुनः डेढ़ रज्जु, पश्चात् कापिष्ठ स्वर्ग तक एक, सहस्रार स्वर्ग तक फिर एक, इसके आगे आरण अच्युत स्वर्ग तक एक और इसके ऊपर ऊवलोक के अन्त तक एक रज्जु । इस प्रकार सात रज्जु प्रमाण ऊँचाई है। इसे सब ओर से घनोदधि, घनवात और तनुवात ये तीनों वातवलय घेरकर स्थित है । घनोदधि-वातवलय गोमूत्रवर्ण के समान, धनवातवलय मूंग वर्ण का और तनुवातवलय अनेक वर्णवाला है। ये वलय दण्डाकार लम्बे और घनीभूत होकर ऊपर-नीचे चारों ओर लोक के अन्त तक है । अधोलोक में प्रत्येक का विस्तार बीस-बीस हजार योजन और लोक के ऊपर कुछ कम एक योजन है। जब ये दण्डाकार नहीं रहते तब क्रमशः सात पाँच और चार योजन विस्तृत होते हैं। मध्यलोक में इनका विस्तार क्रमशः पाँच चार और तीन योजन रह जाता है । ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के अन्त में ये क्रमशः सात, पाँच और चार योजन विस्तृत हो जाते है । पुनः प्रदेशों में हानि होने से मोक्षस्थान के पास क्रमशः पाँच और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं। इसके पश्चात् घनोदधिवातवलय आधा योजन, घनवातवलय उससे आधा और तनुवातवलय उससे कुछ कम विस्तृत है। तनुवातवलय के अन्त तक तियंग्लोक है । इस लोक की ऊपरी और नीचे की अवधि सुमेरु पर्वत द्वारा निश्चित होती है और यह सुमेरु पर्वत पृथिवीतल में एक हजार योजन नीचे है तथा चित्रा पृथिवी के समतल से लेकर निन्यानवे हजार योजन ऊंचाई तक है। असंख्यात द्वीप और समुद्रों से वेष्टित गोल जम्बूद्वीप इसी मध्यलोक में है । इस जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र, एक मेरु, दो कुरु, जम्बू और शाल्मली दो वृक्ष, छः कुलाचल, छ: महासरोवर चौदह महानदियाँ, बारह विभंगा नदियाँ, बीस वक्षारगिरि, चौंतीस राजधानी, चौंतीस रूप्याचल, चौंतीस वृषभाचल, अड़सठ गुहाएँ, चार नाभिगिरि और तीन हजार सात सौ चालीस विद्याघरों के नगर हैं। जम्बूद्वीप से दूने क्षेत्रोंवाला धातकीखण्डद्वीप तथा दूने पर्वतों और क्षेत्र आदि से युक्त पुष्करार्घ इस प्रकार दाई द्वीप तक मनुष्य लोक है। मपु० ४.१३-१५, ४०-४६, पपु० ३.३०, २४.७०, ३१.१५, १०५, १०९-११०, हपु० ४.४-१६, ३३-४१, ४८-४९, ५.१-१२, ५७७, पापु० २२.६८, बीवच० ११. ८८, १८.१२६ लोकचक्षु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१२ लोकश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९५ लोकघाता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २९१ लोकनाडी-लोक के मध्य में स्थित एक चौदह राजू ऊँची और एक राजू चौड़ी नाडी। बस जीवों के रहने से इसे त्रसनाडी भी कहते हैं । मपु० ५.१७७, ४८.१६ । लोकपति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१२ लोकपाल-(१) इन्द्र द्वारा नियुक्त लोक-रक्षक । ये चार है-सोम, यम, वरुण और कुबेर । प्रत्येक दिशा में एक होने से ये चारों दिशाओं में चार होते हैं। प्रत्येक लोकपाल की बत्तीस देवियाँ होती हैं । मपु० १०.१९२, २२.२८, पपु० ७.२८, हपु० ५.३२३-३२७, वीवच० ६.१३२-१३३ (२) जम्बूद्वीप की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा प्रजापाल का पुत्र । इसकी दो बहिनें थीं-गुणवती और यशस्वती। इसके पिता इसे राज्य देकर संयमी हो गये थे। मपु० ४६.१९-२०, ४५-४८, ५१ (३) चन्द्राभनगर के राजा धनपति तथा रानी तिलोत्तमा का पुत्र । इसकी पद्मोत्तम बहिन तथा इकतीस भाई थे । बहिन जीवन्धर को दी गयी थी। मपु० ७५.३९०-३९१, ३९९-४०१ लोकपूरण-केवलि-समुद्घात का चौथा चरण । केवलियों के आयुकर्म की स्थिति जब अन्तर्मुहुर्त रह जाती है तथा तीन अघातिया कर्मों की स्थिति अधिक होती है तब वे दण्ड, कपाट, प्रतर और इसके द्वारा उन तीन अघाति कर्मों की स्थिति बराबर करते है। हपु० ५६. ७२-७५ लोकमूढ़ता-वृक्ष आदि में देवताओं का निवास मानकर उनको पूजा करना। मपु०७४.४९६-४९९ लोकवत्सल-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२११ लोकविन्दुसार-पूर्वगत श्रुत का एक भेद-चौदहवाँ पूर्व । इसमें बारह करोड़ पचास लाख पद हैं । इन पदों में श्रुतसम्पदा के द्वारा अंकराशि, आठ प्रकार के व्यवहार की विधि तथा परिकर्म बताये गये हैं। मपु० २.१००, हपु० १०.१२१-१२२ दे० पूर्व लोकसुन्दरी-राजा जनक के छोटे भाई कनक और उसकी रानी सुप्रभा की पुत्री । यह अयोध्या के राजा दशरथ के राजकुमार भरत से विवाही गयी थी। पपु० २८.२५८-२६३ लोकसेन-शास्त्रों के जानकार अखण्ड चारित्रधारी एक मुनि । ये आचार्य गुणभद्र के प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने उत्तरपुराण की रचना में सहायता देकर अपनी उत्कृष्ट गुरु-भक्ति प्रकट की थी। मपु० प्रशस्ति पद्य २८ लोकस्तूप-समवसरण में विजयांगण के चारों कोनों में रहनेवाले चार स्तूप । ये एक योजन ऊँचे होते हैं। इनका आकार नीचे वेत्रासन के समान, मध्य में झालर के समान होता है। इनमें लोक की रचना दर्पणतल के समान दिखाई देती है । हपु० ५७.५, ९४-९६ लोकाकाश-आकाश का वह भाग जिसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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