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लवणार्णव-लोक
जैन पुराणकोश : ३३७
समान रह जाता है और ऊपर पृथिवी पर विस्तीर्ण हो जाता है । इसमें भूत होकर उनकी आज्ञा के लिए उनके मुख की ओर ताका करते वेदी से पंचानवे हजार योजन भीतर प्रवेश करने पर पूर्व में पाताल हैं। मपु० ३०.९७ दक्षिण में बड़वामुख, पश्चिम में कदम्बुक और उत्तर में यूपकेसर ___ लास्य-सुकुमार प्रयोगों से युक्त ललित नृत्य । मपु० १४.१५५ पातालविवर है । विदिशाओं में चार छुद्र पातालविवर है । वे ऊपर- लिक्षा-आठ बालाग्र प्रमित क्षेत्र का एक प्रमाण । हपु० ७.४० नीचे एक-एक हजार तथा मध्य में दश हजार योजन विस्तृत हैं। लिपिज्ञान-वाणिक बोध । इसके चार मुख्य भेद हैं। उनमें जो लिपि इनकी ऊँचाई भी दश हजार योजन है । पूर्वदिशा के पातालविवरों अपने देश में आमतौर से प्रचलित होती है वह अनुवृत्त, लोग अपनेकी दोनों ओर कौस्तुभ और कौस्तुभास दक्षिण दिशा के पातालविवरों अपने संकेतानुसार जिसकी कल्पना कर लेते हैं वह विकृत, प्रत्ययंग के समीप उदक और उदवास पर्वत है। इसकी पूर्वदिशा में एक पैर- आदि वर्गों में जिसका प्रयोग होता है वह सामयिक तथा वर्णों के वाले, दक्षिण में सींगवाले, पश्चिम में पूछवाले और उत्तर में गंगे बदले पुष्प आदि पदार्थ रखकर जो ज्ञान किया जाता है वह नैमित्तिक मनुष्य रहते हैं । विदिशाओं में खरगोश के समान कानवाले मनुष्य लिपिज्ञान कहलाता है । इसके प्राच्य, मध्यम, यौधेय और समान आदि हैं । एक पैरवालों की उत्तर और दक्षिण दिशा में क्रम से घोड़े और देशों की अपेक्षा अनेक अवान्तर भेद है। पपु० २४.२४-२६ सिंह के समान मुखवाले मनुष्य रहते हैं । सोंगवाले मनुष्यों की दोनों लिपिसंख्यानसंग्रह-गर्भान्वय-क्रियाओं में तेरहवीं किया। इसमें शिशु
ओर शष्कुली के समान कानबाले और पूछवालों की दोनों ओर क्रम को पाँचवें वर्ष में अक्षर-ज्ञान का आरम्भ किया जाता है । सामाजिक से कुत्ते और वानर मुखवाले मनुष्य रहते हैं। गूंगे मनुष्यों की दोनों स्थिति के अनुसार सामग्री लेकर जिनेन्द्र-पूजा की जाती है। इसके
ओर शष्कुली के समान कानवाले रहते हैं। एक पैरवाले मनुष्य पश्चात् अध्ययन कराने में कुशल व्रती गृहस्थ की शिशु को पढ़ाने के गुफाओं में रहते और मिट्टी खाते हैं । शेष वृक्षों के नीचे रहते और लिए नियुक्ति की जाती है । इस क्रिया में शब्दपारभागी भव, अर्थफल-फूल खाते हैं। मरकर ये भवनवासी देव होते हैं । मपु० ४.४८, पारभागी भव, शब्दार्थसंबंधपारभागीभव मन्त्रों का उच्चरण किया १८.१४९, पपु० ३.३२, ५.१५२, हपु० ५.४३०-४७४, ४८२-४८३, जाता है। मपु० ३८.५६, १०२-१०३, ४०.१५२ दे० लवणसैन्धव
लुब्धक-म्लेच्छ जाति के लोग । इन्हें वर्तमान के बहेलिया से समीकृत लवणार्णव-मथुरा के राजा मधु का पुत्र । शत्रुघ्न के सेनापति कृतान्त- किया जा सकता है । मपु० १६.१६१ वक्त्र के साथ युद्ध करते हुए शक्ति लगने से यह पृथिवी पर गिर
लेश्या-(१) अग्रायणीयपूर्व की पंचमवस्तु के चौथे कर्मप्रकृति प्राभूत का गया था । पपु० ८९.४-९, ७१-८०
तेरहवां योगद्वार । हपु० १०.८१, ८३ दे० अग्रायणीयपूर्व लांगल-(१) सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग का पाँचवाँ इन्द्रक विमान ।
' (२) कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन, काय की प्रवृत्ति । हपु० ६.४८
इसके मूलतः दो भेद है-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। विशेषरूप से (२) रावण के समय का एक शस्त्र । पपु० १२.२५८
इसके छः भेद है-पीत, पद्म, शुक्ल, कृष्ण, नील और कापोत । मपु० (३) बलभद्र राम का एक रत्न-हल । पपु० १०३.१३
१०.९६-९८, पापु० २२.७२ लागलखातिका भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । भरतेश के लेण्याकर्म-अग्रायणीयपूर्व के चौथे प्राभूत का चौदहवाँ योगद्वार । हप० सेनापति ने भरतेश की दिग्विजय के समय इसे ससैन्य पार किया १०.८१, ८३, दे० अग्रायणीयपूर्व था । पापु० ३०.६२
लेण्यापरिणाम–अग्रायणीयपूर्व के चौथे प्राभूत का पन्द्रहवां योगद्वार । लांगलावर्ता-पश्चिम विदेहक्षेत्र के आठ देशों में एक देश । यह सीता
हपु० १०.८१, ८४ दे० अग्रायणीयपूर्व नदी और नील कुलाचल के मध्य में प्रदक्षिणा रूप से स्थित है । इसके
लेह्य-भोज्य पदार्थों का एक भेद । ये चार प्रकार के होते हैं-खाद्य, छः खण्ड है । मंजूषा नगरी इसकी राजधानी है। मपु० ६३.२०८
स्वाद्य, लेह्य और पेय । इनमें लेह्य पदार्थ चाटकर खाये जाते हैं। २१३, हपु० ५.२४५-२४६
पपु० २४.५५ लांगूल—एक दिव्याशस्त्र । यह हनुमान् के पास था। पपु० ५४.३७, लोक-आकाश का वह भाग जहाँ जीव आदि छहों द्रव्य विद्यमान होते १०२.१७०-१७१
हैं । यह अनादि, असंख्यातप्रदेशी तथा लोकाकाश संशक होता है। लाट-एक देश । भरतेश ने यहाँ के राजा को अपनी आधीनता स्वीकार इसका आकार नीचे, ऊपर और मध्य में क्रमशः वेत्रासन, मृदंग, और
करायी थी । तीर्थंकर नेमिनाथ विहार करते हुए यहाँ आये थे । झालर सदृश है। इस प्रकार इसके तीन भेद है-अधोलोक, मध्यमपु० ३०.९७, हपु० ५९.११०
लोक और ऊर्ध्वलोक । यह कमर पर हाथ रखकर और पैर फैलाकर लान्तव-(१) सातवां स्वर्ग । मपु० ७.५७, पपु० १०५.१६६-१६८, अचल खड़े मनुष्य के आकार के समान होता है । विस्तार की अपेक्षा ५९.२८०, हपु० ६.३७, ५०
यह अधोलोक में सात रज्जु है । इसके पश्चात् क्रमशः ह्रास होते-होते (२) एक इन्द्रक विमान । हपु० ६.५०
मध्यलोक में एक रज्जु और आगे प्रदेश वृद्धि होने से ब्रह्मब्रह्मोत्तर कालाटिक-एक प्रकार का पद । इस पद के धारी अपमे स्वामी के वशी- स्वर्ग के समीप पाँच रज्जु विस्तृत रह जाता है। तीनों लोकों की
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