________________
३१० : जैन पुराणकोश
मोहारिविजयो-यक्ष
यह रत्न-जटित और स्वर्ण से वेष्टित होता है। मपु० ९.१८९, पपु०
११.३२७, ७१.७ म्लेच्छ-मनुष्य जाति का एक भेद-आर्येतर मनुष्य । ये सदाचारादि गुणों
से रहित और धर्म-कर्म से हीन होते हुए भी अन्य आचरणों से समान होते हैं । भरतेश चक्रवर्ती ने इन्हें अपने अधीन किया था और इनसे उपभोग के योग्य कन्या आदि रत्न प्राप्त किये थे । ये हिंसाचार, मांसाहार, पर-धनहरण और धूर्तता करने में आनन्द मनाते थे। ये अर्धवर्वर देश में रहते थे। जनक के देश को इन्होंने उजाड़ने का उद्यम किया था किन्तु वे सफल नहीं हो सके थे। जनक के निवेदन पर राम-लक्ष्मण ने वहाँ पहुँचकर उन्हें परास्त कर दिया था। पराजित होकर ये सह्य और विध्य पर्वतों पर रहने लगे थे। ये लाल रंग का शिरस्त्राण धारण करते थे । इनका शरीर पुष्ट और अंजन के समान काला, सूखे पत्तों के समान कांतिवाला तथा लाल रंग का होता था। ये पत्ते पहिनते थे । हाथों में ये हथियार लिये रहते थे। मांस इनका भोजन था । इनकी ध्वजाओं में वराह, महिष, व्याघ्र, वृक
और कंक चिह्न अंकित रहते थे। मपु० ३१.१४१-१४२, ४२.१८४, पपु० १४.४१, २६.१०१, २७.५-६, १०-११, ६७-७३ म्लेच्छखण्ड-आर्येतर मनुष्यों की आवासभूमि । मपु० ७६.५०६-५०७
दर्शनमोहनीय की तीन उत्तर प्रकृतियाँ है-मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व
और सम्यक्त्व । चारित्र मोहनीय के दो भेद है-नोकषाय और कषाय । इसमें हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद ये नौ नोकषाय है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से कषाय के मूल में चार भेद है । अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती है। अप्रत्याख्यानावरण हिंसा आदि रूप परिणतियों का एक देश त्याग नहीं होने देती। प्रत्याख्यानावरण से जीव सकल संयमी नहीं हो पाता तथा संज्वलन यथाख्यातचारित्र का उद्भव नहीं होने देती । इसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थित अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है । हपु० ५८.२१६
२२१, २३१-२४१, वीवच० १६.१५७, १६० मोहारिविजयी-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०६ मोहासुरारि-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३६ मौक-जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र का एक देश । विहार करते हुए
महावीर यहाँ आये थे । हपु० ३.४ मौक्तिकहाराबलि-गोल और आकार में बड़े मोतियों से गूथा गया एक
लड़ी का हार । मपु० ७.२३१, १५.८१ मौखर्य-अनर्थदण्डवत का तीसरा अतिचार-हास्यमिश्रित बचन बोलना।
हपु० ५८.१७९ मौंजीबन्धन-रत्नत्रय विशुद्धि का प्रतीक तीन लर की मूंज की पतली
रस्सी से निर्मित कटिबन्धन । इसे द्विज का चिह्न माना गया है ।
मपु० ३८.११०, ४०.१५७ मौण्ड्य-तीर्थकर महावीर के छठे गणधर । इनके अपर नाम माण्डव्य
और मौन्द्र थे। मपु० ७४.३७३, हपु० ३.४२, बीवच० १९.२०६ मौण्डकोशिक-चण्डकौशिक ब्राह्मण और सोमश्री ब्राह्मणी का पुत्र ।
इसका अपर नाम मौड्यकौशिक था। मपु० ६२.२१३-२१६, पापु०
४.१२६-१२८ मौनाध्ययनवृत्तत्व-गर्भाधान से निर्वाण पर्यन्त गृहस्थ की श्रेपन क्रियाओं
में पैंतीसवीं क्रिया । दीक्षा लेकर उपवास के बाद पारणा करके साधु का शास्त्र समाप्ति पर्यन्त मौनपूर्वक अध्ययन करना मौनाध्ययनवृत्तत्व कहलाता है । इसमें मौनी, विनीत, मन-वचन-काय से शुद्ध साधु को गुरु के समीप शास्त्रों का अध्ययन करना होता है। इससे इस लोक में योग्यता की वृद्धि तथा परलोक में सुख की प्राप्ति होती है । मपु०
३८.५८, ६३,१६१-१६३ मौन-तीर्थकर महावीर के छठे गणधर । मपु० ७४.३७३ दे० महावीर मौर्य-तीर्थङ्कर महावीर के पांचवें गणघर । मपु० ७४.३७३, वीवच०
१९.२०६ दे० महावीर मौर्यपुत्र तीर्थकर महावीर के सातवें गणधर । हपु० ३.४२ दे०
महावीर मौलि-एक प्रकार का दैदीप्यमान मुकुट । यह सामान्य मुकुट की अपेक्षा • अधिक अच्छा माना जाता है। इसे स्वर्ग के देव धारण करते हैं ।
यक्ष-(१) एक विद्याधर । इसने राक्षस विद्याधर के साथ युद्ध किया था। पपु० १.६४
(२) यक्षगीत नगर के विद्याधर । इन्द्र विद्याधर ने यहाँ के विद्याधरों को इस नगर का निवासी होने के कारण यह नाम दिया था। पपु० ७.११६-११८
(३) व्यन्तर देवों का एक भेद । ये जिनेन्द्र के जन्माभिषेक के समय सपत्नीक मनोहर गीत गाते हैं । पपु० ३.१७९-१८०
(४) भरतक्षेत्र के क्रौंचपुर नगर का एक राजा। राजिला इसकी रानी थी। इसके यहाँ यक्ष नामक एक पालतू कुत्ता था। उसने एक दिन रत्नकम्बल में लिपटा हुआ एक शिशु लाकर इसे दिया था। राजा और रानी ने इस कुत्ते से प्राप्त होने के कारण उसका यक्षदत्त नाम रखा था। पपु०४८.३६-३७,४८-५०
(५) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पलाशकूट ग्राम के यक्षदत्त और यक्षदत्ता का ज्येष्ठ पुत्र । यह यक्षिल का बड़ा भाई था। निर्दय होने से इसे लोग निरनुकम्प कहते थे। इसने एक अन्धे सर्प के ऊपर से बैलगाड़ी निकाल कर उसे मार डाला था । इस कृत्य से दुःखी होकर छोटे भाई द्वारा समझाये जाने पर यह शान्त हुआ । आयु के अन्त में मरकर यह निर्नामक हुआ। इसका दूसरा नाम यक्षलिक था। मपु० ७१.२७८-२८५, हपु० ३३.१५७-१६२
(६) कृष्ण की पटरानी सुसीमा के पूर्वभव का पिता । यह जम्बद्वीप में भरतक्षेत्र के शालिग्राम का निवासी था । इसकी पत्नी देवसेना तथा पुत्री यक्षदेवी थी। इसका दूसरा नाम यक्षिल था। मपु० ७१. ३९०, हपु० ६०.६२-६७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org