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२६० : जैन पुराणकोश
भावन-भिक्षा
(२) नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों में चौथा भावसत्य-दस प्रकार के सत्यों में एक सत्य । छद्मस्थ को द्रव्यों का निक्षेप । हपु० १७.१३५
यथार्थ ज्ञान नहीं होता है । अतः जो पदार्थ इन्द्रियगोचर न हो उसके (३) जीव के पांच परावर्तनों में पांचवां परावर्तन-मिथ्यात्व आदि सम्बन्ध में केवली द्वारा कथित वचनों को प्रमाण मानना भावसत्य है । सत्तावन आस्रव-द्वारों से परिभ्रमण करते हुए निरन्तर दुष्कर्मों का प्रासुक और अप्रासुक द्रव्यों का निर्णय इसी प्रकार किया जाता है । उपार्जन करना । वीवच ११.२६, ३२ दे० परावर्तन
हपु० १०.१०६ भावन-(१) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सदृतु नगर का एक वणिक् । भावसूत्र-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीन गुणों से
आलकी इसकी स्त्री और हरिदास पुत्र था। यह चार करोड़ दीनारों निर्मित उपासक का वैचारिक सूत्र । मपु० ३९.९५ का स्वामी था । देशान्तर जाते ही इसके पुत्र ने व्यसनों में पड़कर भावात्रव-राग आदि से दूषित वह भाव जिससे कर्म आते हैं, भावास्रव सम्पत्ति का नाश कर दिया । वह चोरी करने लगा। इसे देशान्तर कहलाता है । वीवच० १६.१४० से लौटने पर अपना पुत्र दिखायी न देने से यह उसे खोजने सुरंग- भावित-राम का एक योद्धा । यह रावण की सेना से युद्ध करने ससैन्य मार्ग से गया और इसका पुत्र चोरी करके उसी सुरंगमार्ग से लौटा।। ___ आया था। पपु० ५८.२१ इसने अपना वरी जानकर इसको तलवार से मार डाला था। भाविता-तीर्थकर कुन्थुनाथ के संघ की प्रमुख आर्यिका । मपु० ६४.४९ पपु० ५.९६-१०५
भाषकुन्तल–एक देश । राम के पुत्र लवण और अंकुश दोनों राजकुमारों (२) असरकुमार आदि भवनवासी देव । हपु० ३.१३५
ने यहां के राजा को जीतकर पश्चिम समुद्र के दूसरे तटवर्ती राजाओं भाषना-(१) देह और देही के यथार्थ स्वरूप का बार-बार चिन्तन को अपने अधीन किया था । पपु० १०१.७७-७८
करना। ये बारह होती हैं। उनके नाम है-अनित्य, अशरण, भाषाक्रिया-पारिव्राज्य क्रिया के सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, इसमें मुनियों को हित-मित वचन रूप भाषा-समिति का पालन करना बोधिदुर्लभ और धर्म । इनका अपरनाम अनुप्रेक्षा है। मपु० ११. होता है । मपु० ३९.१६२-१६५, १९४ १०५-१०९ पापु० १.१२७, वीवच० १.१२७
भाषा-समिति–पाँच समितियों में दूसरी समिति । दस प्रकार के कर्कश (२) तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करानेवाली भावनाएँ। ये सोलह और कठोर वचनों का त्याग करके हित-मित और प्रिय वचन बोलमा हैं । उनके नाम है-दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलवतेश्वनति- भाषा-समिति है । हपु० २.१२३, पापु० ९.९२ चार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, भास्कर-(१) महाशुक्र स्वर्ग का विमान एवं इसी नाम का एक देव । साधु-समाधि, वैयावृत्य, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, मपु० ५९.२२६ प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवात्सल्य । (२) रावण का एक योद्धा। इसने राम की सेना से युद्ध किया मपु० ४८.५५, ६३.३१२-३३०
था। पपु० ५५.५ भावनाविधि-एक व्रत । इसमें अहिंसा आदि पाँचों व्रतों की पच्चीस
(३) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३८ भावनाओं को लक्ष्य कर दस दशमी, पाँच पंचमी, आठ अष्टमी और
भास्करश्रवण-कुम्भकर्ण का दूसरा नाम । पपु० ८.१४३-१४५ दो प्रतिपदा के कुल पच्चीस उपवास तथा एक-एक उपवास के बाद एक-एक पारणा की जाती है। कुछ भावनाएं निम्न प्रकार हैं
भास्कराभ-(१) लंका एक राक्षसवंशी नृप। इसे लंका का शासन सम्यक्त्वभावना, विनयभापना, ज्ञानभावना, शीलभावना, सत्यभावना,
मनोरम्य राजा के पश्चात् प्राप्त हुआ था । पपु० ५.३९७ ध्यानभावना, शुक्लध्यानभावना, संक्लेशनिरोधभावना, इच्छानिरोध
(२) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का एक नगर । लक्ष्मण ने
इस नगर को अपने आधीन किया था। पपु० ९४.७, ९ भावना, संवरभावना, प्रशस्तयोगभावना, संवेगभावना, करुणाभावना,
भास्करास्त्र-एक अस्त्र । कृष्ण ने जरासन्ध के तामसास्त्र को इसी से उद्वेगभावना, भोगनिर्वेदभावना, संसारनिर्वेदभावना, भुक्तिवैराग्यभावना, मोक्षभावना, मैत्रीभावना, उपेक्षाभावना और प्रमोदभावना।
नष्ट किया था । हपु० ५२.५५ हपु० ३४.११२-११६
भास्करी-रावण को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३३० भावपरावर्तन-जीव के पाँच परावर्तनों में पांचवाँ परावर्तन । वीवच०
भास्वती-समवसरण के आम्रवन की एक वापी । हपु० ५७.३५ ११.३२ दे० परावर्तन
भास्वान्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११७ भावबन्ध-जीव का कर्मों का बन्ध करनेवाला राग-द्वेष आदि रूप अशुद्ध- भिक्षा-दिगम्बर मुनियों की निर्दोष आहारविधि । मुनि अपने उद्देश्य परिणाम । वीवच०१६.१४३
से तैयार किया गया आहार नहीं लेते। वे अनेक उपवास करने के भावमोक्ष-सर्व कर्मों का क्षय करनेवाला आत्मा का निर्मल परिणाम । बाद भी श्रावकों के घर हो आहार के लिए जाते हैं और वहाँ प्राप्त वीवच० १६.१७२
हुई निर्दोष भिक्षा को मौनपूर्वक खड़े होकर ग्रहण करते हैं। उनकी भावसंवर–कर्मास्रव के निरोध का कारणभूत राग-द्वेष रहित आत्मा का यह प्रवृत्ति रसास्वादन के लिए न होकर केवल धर्म के साधन-स्वरूप परिणाम । वीवच० १६.१६७
देह की रक्षा के लिए ही होती है । पपु० ४.९५-९७
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