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४: जैन पुराणकोश
अकलंक भट्ट-अक्षर समास करते रहे। उनकी श्रुतसागर मुनि से भेंट हुई। राजा के समक्ष था। कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध में इसने कृष्ण का साथ दिया था। श्रुतसागर से विवाद हुआ जिसमें मंत्री पराजित हुए। पराभव होने वसुदेव ने इसे बलराम और कृष्ण के रथ की रक्षा करने के लिए से कुपित होकर मंत्रियों ने श्रुतसागर मुनि को मारना चाहा किन्तु पृष्ठरक्षक बनाया था। हपु० ४८. ५३-५४, ५०.८३, ११५.११७ संरक्षक देव ने उन्हें स्तम्भित कर दिया जिससे वे अपना मनोरथ पूर्ण दे० वसुदेव न कर सके । राजा ने भी उन्हें अपने देश से निकाल दिया । ये मंत्री अक्षत-पूजा के जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल घूमते हुए हस्तिनापुर आये थे। हस्तिनापुर में राजा पद्म का राज्य इन अष्ट द्रव्यों में एक द्रव्य । यह अक्षत चावल होता है । इसे था। बलि आदि मंत्री राजा के विरोधी सिंहबल को पकड़कर राजा चढ़ाते समय 'अक्षताय नमः' यह मंत्र बोला जाता है। मपु० ११. के पास लाने में सफल हो गये इससे राजा प्रसन्न हुआ और उन्हें १३५, १७.२५१-२५२, ४०.८ अपना मंत्री बना लिया। इस कार्य के लिए उन्हें इच्छित वर मांग अक्षपुर-एक नगर, राजा अरिंदम की निवासभूमि । पपु०७७.५७ लेने के लिए भी कहा जिसे मंत्रियों ने धरोहर के रूप में राजा के अक्षमाला-राजा अकंपन की दूसरी पुत्री, अपरनाम लक्ष्मीवती । इसका पास ही रख छोड़ा । दैवयोग से ये आचार्य ससंघ हस्तिनापुर आये ।
विवाह अर्ककीर्ति के साथ हुआ था। मपु० ४५.२१, २९, पापु० इन्हें देखकर बलि आदि ने भयभीत होकर धरोहर के रूप में रखे
३१३६ दे० अकंपन-६ हए वर के अन्तर्गत राजा से सात दिन का राज्य मांग लिया। राज्य
अक्षय-(१) समवसरण के उत्तरीय गोपुर के आठ नामों में सातवाँ पाकर उन्होंने इन आचार्य और इनके संघ पर अनेक उपसर्ग किये
नाम । हपु० ५७.६० दे० आस्थानमण्डल जिनका निवारण विष्णु मुनि ने किया। मपु० ७०.२८१-२९८,
(२) कौरव वंश का एक कुमार जिसने जरासन्ध-कृष्ण-युद्ध में हपु० २०.३-६०, पापु० ७.३९-७३
अभिमन्यु को दस बाणों से विद्ध किया था। पापु० २०.२० अकलंक भट्ट-जैन न्याय के युग संस्थापक आचार्य । इन्होंने (३) जिनेन्द्र का एक गुण । इसकी प्राप्ति के लिए 'अक्षयाय नमः'
शास्त्रार्थ करके बौद्धों द्वारा घट में स्थापित माया देवी को परास्त यह पीठिका-मंत्र बोला जाता है । मपु० ४०.१३ किया था। आचार्य जिनसेन ने इनका नामोल्लेख आचार्य देवनन्दी (४) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११४ के पश्चात् तथा आचार्य शुभचन्द्र ने आचार्य पूज्यपाद के पश्चात्
अक्षयत्व-मुक्त जीवों को कर्म-क्षय से प्राप्त होनेवाले गुणों में एक गुणकिया है । मपु० १.५३, पापु० १.१७
अतिशयों की प्राप्ति । मपु० ४२.९६-९७, १०८ अकल्पित-युद्धभूमि में कृष्ण के कुल की रक्षा करनेवाले राजाओं में एक
अक्षयवन-सुवेल नगर का एक वन । राम-लक्ष्मण के सहायक विद्याधर राजा । हपु० ५०.१३०-१३२
इसी वन में रात्रि विश्राम करके लंका जाने को उद्यत हुए थे । पपु० अकाम निर्जरा-निष्काम भाव से कष्ट सहते हुए कर्मों का क्षय करना । ५४.७२
यह देवयोनि की प्राप्ति का एक कारण है । ऐसी निर्जरा करने वाले अक्षय्य-भरत चक्रवर्ती और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक जीव चारों प्रकार के देवों में कोई भी देव होकर यथायोग्य ऋद्धियों ___ नाम । मपु० २४.३५, २५.१७३ के धारी होते हैं । पपु० १४.४७-४८, ६४.१०३
अक्षर-(१) श्रुतज्ञान के बीस भेदों में तीसरा भेद । यह पर्याय-समासअकाय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.९१ ज्ञान के पश्चात् आरम्भ होता है। हपु० १०.१२-१३, २१ दे. अका-शूद्र वर्ण के कारु और अकारु दो भेदों में दूसरा भेद । ये धोबी श्रुतज्ञान आदि से भिन्न होते हैं । मपु० १६.१८५
(२) यादव पक्ष का एक राजा । मपु० ७१.७४ अकृत्य-निन्दा, दुःख और पराभवकारी कर्म । वीवच० ५.१०
(३) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । अकृष्ट पच्य–बिना बोये उत्पन्न होनेवाला धान्य । मपु० ३.१८२ मपु० २४.३५, २५.१०१ । अक्रियावाव-अन्योपदेशज मिथ्यादर्शन के चार भेदों में दूसरा भेद ।। अक्षरच्युतक–देवांगनाओं द्वारा मरुदेवी के मनोरंजन के लिए पूछी गयी इसका अपरनाम अक्रियादृष्टि है । यहाँ ८४ प्रकार की होती है । हपु० प्रहेलिकाओं का एक भेद । मपु० १२.२२०-२४८ १०.४८, ५८.१९३-१९४
अक्षरत्व-मुक्त जीव का अविनाशी गुण । मपु० ४२.१०३ अक्रूर-(१) राजा श्रेणिक का पुत्र । इसने वारिषेण और अभयकुमार
अक्षरम्लेच्छ-अधर्माक्षरों के पाठ से लोक के वंचक पापसूत्रोपजीवी आदि अपने भाइयों और माताओं के साथ समवसरण में वीर जिनेन्द्र पुरुष । मपु० ४२.१८२-१८३ की वन्दना की थी। हपु० २.१३९
अक्षरविद्या-ऋषभदेव द्वारा अपनी पुत्री ब्राह्मी को सिखायी गयी विद्या(२) यादववंशी राजा वसुदेव और उनकी रानी विजयसेना का लिपिज्ञान । स्वर और व्यंजन के भेद से इसके दो भेद होते हैं। पुत्र । इसका पिता इसके उत्पन्न होते ही अज्ञात रूप से घर से निकल मा० १६.१०५-११६ हरिवंशपुराण में इसे कला कहा है। हपु० गया था किन्तु पुनः वापिस आकर और इसे लेकर वह कुलपुर चला ९.२४ गया था। हपु० १९.५३-५९, ३२.३३-३४ क्रूर इसका छोटा भाई ___अक्षर समास-श्रुतज्ञान का एक भेद-अक्षरज्ञान के पश्चात् पदज्ञान होने
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