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बैन पुराणकोश : ३
अंजनात्म-अकंपनाचार्य
देखा। पति का स्नेह न मिलने से यह सदा अपनी ही निन्दा करती थी। पपु० १५.१५४-१६५, २१७, १६.१.९ इसी बीच रावण और वरुण का परस्पर विरोध हो गया। रावण ने अपनी सहायता के लिए प्रह्लाद को बुलाया। पवनंजय ने पिता प्रह्लाद से स्वयं जाने की अनुमति प्राप्त की और वह सामन्तों के साथ आगे बढ़ गया। प्रस्थान करते समय इसने पवनंजय से अपनी मनो-व्यथा व्यक्त की थी किन्तु पवनंजय ने इसे कोई सन्तोषप्रद उत्तर नहीं दिया था। पवनंजय को पति से वियुक्त एक चकवी की व्यथा को देखकर इसकी याद आयी। बाईस वर्ष तक अनादर करते रहने के अपराध पर उसे पश्चात्ताप हुआ। गुप्त रूप से पवनंजय इससे मिलने आया। उसने ऋतकाल के पश्चात इससे सहवास भी किया। गर्भवती होने की आशंका से इसके निवेदन करने पर पवनंजय ने साक्षी रूप में इसे अपना कड़ा दे दिया। पपु० १६.३४-२४० गर्भ के चिह्न देखकर इसकी सास केतुमती ने इसके अनेक प्रकार से विश्वास दिलाने पर भी इसे घर से निकाल दिया। उसने बसन्तमाला सखी के साथ इसे पिता के घर छोड़ने का आदेश दिया। सेवक इसे इसके पिता के घर ले गया किन्तु पिता ने भी इसे आश्रय नहीं दिया । पपु० १७.१-२१, ५९-६० यह निराश्रित होकर वन में प्रविष्ट हुई । इसे चारणऋद्धिधारी अमितगति मुनि के दर्शन हुए। इसने मुनिराज से अपना पूर्वभव तथा गर्भस्थ शिशु का माहात्म्य जाना। मुनिराज के पर्यकासन से विराजमान होने के कारण जिसे "पर्यंकगुहा' नाम प्राप्त हुआ था, उसी गुहा में यह रही । यहाँ अनेक उपसर्ग हुए। सिंह की गर्जना से भयभीत होकर इसने इस गुहा में उपसर्ग पर्यन्त के लिए शरीर और आहार का त्याग कर दिया। इस समय मणिचूल गन्धर्व ने अष्टापद का रूप धारण करके इसकी रक्षा की। इसने इसी गुहा में चैत्र कृष्ण अष्टमी श्रवण नक्षत्र में एक पुत्र को जन्म दिया। अनुरुह द्वीप का निवासी प्रतिसूर्य इसका भाई था। कहीं जाते हुए उसने इसे पहचान लिया और इसे दुःखी देखकर यह विमान में बैठाकर अपने घर ला रहा था कि मार्ग में एकाएक शिशु उछलकर विमान से नीचे एक शिला पर जा गिरा । शिला टुकड़े-टुकड़े हो गयी थी किन्तु शिशु का बाल भी बांका नहीं हुआ था । बालक का शैल में जन्म होने तथा शैल को चर्ण करने के कारण इसने और इसके भाई प्रतिसूर्य ने शिशु का नाम श्रीशैल रखा था । हनुरुह द्वीप में जन्म संस्कार किये जाने से शिशु को हनुमान् भो कहा गया। पपु० १७ १३९-४०३, प्रतिसूर्य ने पवनंजय को ढूंढने के लिए अपने विद्याधरों को चारों ओर भेजा। वे उसे ढूंढकर अनुरुह द्वीप लाये। वहीं अंजना को पाकर पवनंजय
बड़ा प्रसन्न हुआ । पपु० १८.१२६-१२८ अंजनात्म-सोलह वक्षार पर्वतों में एक पर्वत । पपु० ६३.२०३ अंशुक--ग्रीष्म ऋतु में अधिक प्रयुक्त होने वाले सूती और रेशमी वस्त्र ।
मपु० १०.१८१, ११.१३३, १२.३०, १५.२३ अंशुरुध्वज-महीन और शुभ्र वस्त्रों से निर्मित समवसरण की ध्वजा।
मपु० २२.२२३ दे० आस्थानमण्डल अंशमान-(१) विद्याधर नमि का पुत्र। इसके रवि, सोम और पुरुहूत
तीन छोटे भाई तथा हरि, जय, पुलस्त्य, विजय, मातंग और वासव छः बड़े भाई थे। कनकपुंजश्री और कनकमंजरी इसकी दो बहिनें थीं। हपु० २२.१०७-१०८ दे० नमि
(२) कपिल मुनि का पुत्र, कपिला का भाई और बसुदेव का साला। हपु० २४.२६-२७ यह अपने पिता के साथ रोहिणी के स्वयंवर में
सम्मिलित हुआ था । हपु० ३१.१०-१२, ३० अंशुमाल-दिव्यतिलक नगर का वैभवशाली विद्याधर राजा । मपु० ५९.
२८८-२९१ अहिप-रावण और इन्द्र विद्याधर के बीच हुए युद्ध में प्रयुक्त एक
शस्त्र । पपु० १२.२५७ अकंपन-(१) तीर्थकर महावीर के नवें गणधर | मप tav
वीवच० १९.२०६-२०७ इन्हें आठवां गणधर भी कहा गया है । हपु० ३.४१-४३ दे० महावीर
(२) वैशाली नगरी का राजा चेटक और उसकी रानी सुभद्रा के दस पुत्रों में सातवाँ पुत्र । मपु० ७५.३-५ दे० चेटक
(३) कृष्ण का पुत्र । हपु० ४८.६९-७२ दे० कृष्ण (४) यादव वंश में हुए राजा विजय का पुत्र । हपु० ४८.४८
(५) उत्पलखेटपुर नगर के राजा वनजंघ का सेनापति । यह पूर्वभव में प्रभाकर नामक वैमानिक देव था । वहाँ से च्युत होकर अपराजित
और आर्जवा का पुत्र हुआ । बड़ा होने पर यह वनजंघ का सेनापति हुआ। मपु०८.२१४-२१६ राजा वज्रजंघ और उनकी रानी श्रीमती के वियोगजनित शोक से संतप्त होकर इसने दृढधर्म मुनि से दीक्षा ली तथा उग्र तपश्चरण करते हुए देह त्यागकर अधोग्रंवेयक के सबसे नीचे के विमान में अहमिन्द्र पद पाया। मपु० ९.९१-९३
(६) भरतक्षेत्र के काशी देश की वाराणसी नगरी का राजा । इसकी रानी का नाम सुप्रभादेवी था। इन दोनों के हेमांगद, केतुश्री, सुकान्त आदि सहस्र पुत्र और सुलोचना तथा लक्ष्मीमती दो पुत्रियाँ थीं। मपु० ४३.१२१-१३६, हप० १२.९, यह नाथ वंश का शिरोमणि था । स्वयंवर विधि का इसी ने प्रवर्तन किया था। भरत चक्रवर्ती का यह गृहपति था। भरत के पुत्र अर्ककीति तथा सेनापति जयकुमार में संघर्ष इसकी सुलोचना नामक कन्या के निमित्त हुआ था। इस संघर्ष को इसने अपनी दूसरी पुत्री अर्ककीति को देकर सहज में ही शान्त कर दिया था। मपु० ४४.३४४-३४५, ४५.१०-५४ अन्त में यह अपने पुत्र हेमांगद को राज्य देकर रानी सुप्रभादेवी के साथ वृषभदेव के पास दीक्षित हो गया तथा इसने अनुक्रम से कैवल्य
प्राप्त कर लिया। मपु०४५.२०४-२०६ पापु० ३.२१-२४, १४७ अकंपनाचार्य-मुनि-संघ के आचार्य । इनके संघ में सात सौ मुनि थे ।
एक समय ये संघ सहित उज्जयिनी आये। उस समय उज्जयिनी में श्रीधर्मा नाम का नृप था। इस राजा के बलि, वृहस्पति, नमुचि और प्रहलाद ये चार मंत्री थे। संघ के दर्शनों की राजा की अभिलाषा जानकर मंत्रियों ने राजा को दर्शन करने से बहुत रोका किन्तु वह रुका नहीं। राजा के जाने से मंत्रियों को भी वहाँ जाना पड़ा। सम्पूर्ण संघ मौन था। मुनियों को मौन देखकर मंत्री अनर्गल बातें
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