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१९६ : जैन पुराणकोश
नलिनी-नागदत्त
नलिनी-(१) पूर्व विदेहक्षेत्र में सीतोदा नदी और निषध पर्वत के मध्य स्थित आठ देशों में छठा देश । हपु० ५.२४९-२५०
(२) समवसरण के चम्पक वन की छः वापियों में दूसरी वापी । हपु० ५७.३४ नवकेवललब्धि-तपस्वियों को तप से प्राप्त होनेवाली नौ लब्धियाँ
क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिक-उपभोग और
क्षायिकवीर्य । मपु० २०.२६६, २५.२२३, ६१.१०१ नव-पुण्य-दाताओं के नौ पुण्य-(नवधाभक्ति)-१. मुनियों को पड़गाहना
२. उन्हें ऊंचे स्थान पर विराजमान करना ३. उनके चरण धोना ४. उनकी पूजा करना ५. उन्हें नमस्कार करना ६-९. मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और आहारशुद्धि बोलना। मपु० २०.८६-८७,
हपु० ९.१९९-२०० नवनवम-एक व्रत । इसमें प्रथम दिन उपवास, पश्चात् एक-एक ग्रास
बढ़ाते हुए नवें दिन नौ ग्रास लिये जाते हैं तथा एक-एक घटाते हुए नवें दिन उपवास किया जाता है। इस विधि को नौ बार करने से
यह व्रत पूर्ण होता है । हपु० ३४.९१-९३ नवमिका-(१) रुचकपर्वत के पश्चिम दिशावर्ती आठ कूटों में छठे सौमनस कूट की रहनेवाली एक देवी । हपु० ५.७१३
(२) सौधर्मेन्द्र की एक देवी । मपु० ६३.१८ नवराष्ट-दक्षिण दिशा का एक देश । यह भरतेश के एक भाई के
अधीन था। उसने भरतेश की अधीनता स्वीकार नहीं की और दीक्षा ले ली थी । हपु० ११.७० नष्ट-छन्दःशास्त्र का एक प्रकरण-प्रत्यय । मपु० १६.११४ नाग-(१) पाताल लोकवासी भवनवासी देव । इनकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य की होती है । पपु० ७.३४२ हपु० ४.६३, ६५-६६
(२) इस नाम का एक नगर । यहाँ के राजा हरिपति और उसकी रानी मनोलूता का पुत्र कुलंकर हुआ । पपु० ८५.४९-५१
(३) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक पर्वत । भरतेश का सेनापति 'विंध्याचल के प्रदेशों को जीतता हुआ यहाँ आया था और यहाँ से वह मलयपर्वत पर गया था । मपु० २९.८८
(४) सानत्कुमार युगल का तीसरा इन्द्रक । हपु० ६.४८
(५) महावीर निर्वाण के एक सौ बासठ वर्ष के बाद एक सौ तेरासी वर्ष के काल में हुए दस पूर्व और ग्यारह अंग के धारी यारह मुनियों में पांचवें मुनि । हपु० १.६२ वीवच० १.४५-४७
(६) हाथी को एक जाति। इस जाति का हाथी फुर्तीला, तेज और अधिक समझदार होता है । यह जलक्रीड़ा करता है और युद्ध में इसका अत्यधिक उपयोग होता है । मपु० २९.१२२ नागकुमार-भवनवासी देव । ये और असुरकुमार परस्पर की मत्सरता
से एक-दूसरे के प्रारम्भ किये कार्यों में विघ्न करते हैं। मपु०६७.
१७३, हपु० २.८१, ११.४४ नागदत्त-(१) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर
स्थित विदेह क्षेत्र में गन्धिल देश के पाटली ग्राम का एक वैश्य ।
इसकी सुमति नाम की भार्या थी। इससे इसके नन्द, नन्दिमित्र, नन्दिषेण, वरसेन और जयसेन पांच पुत्र तथा मदनकान्ता और श्रीकान्ता नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थीं। मपु० ६.१२६-१३०
(२) आभियोग्य जाति के देवों में मुख्य देव । मपु० २२.१७ (३) धान्यपुर नगर के कुबेर नामक वणिक् और उसकी पत्नी सुदत्ता का पुत्र । यह अप्रत्याख्यानावरण माया का धारक था । आतध्यान से मरकर तिर्यंच आयु का बन्ध कर लेने से यह वानर हुआ। मपु० ८.२३०-२३३
(४) भरतक्षेत्र के अवन्ति देश में उज्जयिनी नगर के सेठ धनदेव और सेठानी धनमित्रा का पुत्र । यह महाबल का जीव था। इसकी अर्थस्वामिनी नाम की एक छोटी बहिन थी। इसकी माँ धनदेव के दूसरा विवाह कर लेने से उसके द्वारा त्यागे जाने पर इसे (नागदत्त को) लेकर मुनि शीलदत्त के पास चली गयी थी । वहाँ इसने शीलदत्त मुनि से विद्याभ्यास किया और वहाँ के शिष्ट पुरुषों से उपाध्याय पद भी प्राप्त हुआ । बहिन को अपनी मामी के पुत्र कुलवाणिज को देकर यह अपने पिता के पास आया। पिता के कहने पर अपने हिस्से का धन लेने के लिए यह अपने हिस्सेदार भाई नकुल और सहदेव के साथ पलाशद्वीप के मध्य स्थित पलाश-नगर गया। वहाँ एक दुष्ट विद्याधर का वध करके इसने वहाँ के राजा महाबल और उसकी रानी कांचनलता की पुत्री पद्मलता के साथ बहुत धन प्राप्त किया। इसने पद्मलता और धन दोनों को रस्सी से नाव पर पहुंचा दिया। इधर पाप बुद्धि से नकुल और सहदेव दोनों इसे छोड़कर चले गये । यह किसी विद्याधर की सहायता प्राप्त कर घर आया। नागदत्त के न आने पर राजा नकुल का, ववाह पद्मलता से करना चाहता था परन्तु इसके पहुँचते ही तथा इससे यात्रा के समाचार ज्ञात करके राजा ने पद्मलता नकुल को न देकर इसे प्रदान की। इससे सेठ धनदेव भी बहुत लज्जित हुआ। आयु के अन्त में यह संन्यासपूर्वक देह त्याग कर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। मपु० ७५.९५-१६२
(५) मगध देश में सुप्रतिष्ठ नगर के निवासी सेठ सागरदत्त और उसकी स्त्री प्रभाकरी का ज्येष्ठ पुत्र, कुबेरदत्त का अग्रज । पिता के संन्यास धारण कर लेने पर इसने अपने भाई कुबेरदत्त से पिता के धन के सम्बन्ध में प्रश्न किया जिसके उत्तर में कुबेरदत्त ने इसे पिता के धन की सम्पूर्ण जानकारी दी। दोनों ने चतुर्विध दान दिये । इसने कुबेरदत्त के पुत्र को धोखा दिया था। प्रीतिकर को प्राप्त अलका नगरी के राजा हरिबल के छोटे भाई महासेन की पुत्री वसुन्धरा तथा धन को प्राप्त कर लेने पर इसने वसुन्धरा के भूले हुए आभरणों को लाने के लिए उसे नगर में भेजा और जहाज से उतरने की रस्सी खींच ली। इस तरह प्रीतिकर को छोड़कर यह वहाँ से चला आया था । नगरवासियों के पूछने पर इसने प्रीतिकर के सम्बन्ध में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। प्रीतिकर जैन मन्दिर गया, वहाँ नन्द और महानन्द यक्षों ने प्रीतिकर के कान में बंधे पत्र को पढ़कर उसे अपना साधर्मी भाई समझा । उन्होंने उसे धरणिभूषण पर्वत पर छोड़ दिया। प्रीतिकर से गुप्त रहस्य ज्ञात कर राजा ने क्रोधित होते हुए इसका
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