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१०० जैन पुराणकोश
वृढराज - भरतक्षेत्र में श्रावस्ती नगरी का राजा । यह तीर्थंकर संभवनाथ का पिता था। मपु० ४९.१४, १९
दृढवक्षा - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का चौरानवेवाँ पुत्र । पापु० ८.२०४
दृढवर्मा - (१) कृष्ण के कुल का रक्षक एक नृप । हपु० ५०.१३२ (२) धर्मक्षेत्र का एक श्रावक । मपु ७६. २०३ २०४
(३) लांग देव की स्वयंप्रभा देवी की अन्तःपरिषद्का सभासद एक देव । मपु० ६.५३
वृढव्रत - ( १ ) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९१
(२) वृषभदेव के समवसरण का मुख्य श्रावक । मपु० ४७. २९६ (३) समुद्रविजय के भाई का पुत्र पु० ४८.४५ बृढहस्त - राजा घृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का पैंसठवाँ पुत्र । पापु०
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८.२०१
दृढायुध - वैदिशपुर के राजा वृषभध्वज का युवराज । पु० ४५.१०७ दृष्टि- यह चार प्रकार की होती है-क्रियादृष्टि, अक्रियादृष्टि, अज्ञान
दृष्टि और विनयदृष्टि । इनमें क्रियादृष्टि (क्रियावादी) के एक सौ अस्मी, अक्रियादृष्टि (अक्रियावादी) के चौरासी, ज्ञानदृष्टि (शानबादी) के अस और विनयदृष्टि (विनयवादी) के बत्तीस प्रद होते हैं । पु० १०.४७-४८
दृष्टिमुष्टि - वसुदेव और मदनवेगा का प्रथम पुत्र, अनावृष्टि और हिममुष्टि का अग्रज । हपु० ४८ . ६१
वृष्टिमोह - सम्यग्दर्शन के घातक मोहनीय कर्म का एक भेद ( दर्शनमोहनीय) पु० २.११३
दृष्टियुद्ध-पलकों के टिमकार रहित शान्त दृष्टियों का युद्ध
भरतेश और बाहुबलि के मध्य ऐसा युद्ध हुआ था, जिसमें बाहुबलि विजयो हुए थे । मपु० ३६.४५, ५१
दृष्टिवाद - बारहवाँ अंग । इसमें एक सौ आठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पाँच पदों द्वारा तीन सौ त्रेसठ दृष्टियों का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । मपु० ३४.१४६, हपु० १०.४६ इसके पांच भेद होते हैं-परिकर्म सूत्र अनुयोग, पूर्वगत और चूलिका मपु० ३४.१४६ ४५० १०.४६, ६१ ३० अंग देवस्तु आहार, औषधि, पास्त्र तथा अभय देनेवाली वस्तुएँ। इनसे दाता और गृहीता दोनों के गुणों में वृद्धि होती है मपु० २०.१३८, २७१-२७४
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देव - (१) जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता आचार्य देवनन्दी | अपरनाम पूज्यपाद । मपु० १.५२, हपु० १.३१
(२) देवगति के जीव । ये सुन्दर पवित्र शरीर के धारक, गर्भवासमांस हड्डी तथा स्वेद आदि से रहित, टिमकार विहीन नेत्रधारी, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, वृद्धावस्था से रहित, रोग विहीन, यौवन से सम्पन्न तेज-युक्त, मुख और सौभाग्य के सागर, स्वाभाविक विद्याओं से सम्पन्न अवधिज्ञानी, धीर, वीर और स्वच्छन्द विहारी होते हैं। मपु० २८.१३२, ५० ४३.२५-२७ मे
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राज
ज्योतिषी, भवनवासी, व्यन्तर और कल्पवासी भेद से चार प्रकार के होते हैं। महत्वाकांक्षी होने के कारण भोग तथा महागुणों को प्राप्त करने की इच्छा की पूर्ति न होने और वहाँ से च्युत होने के कारण दुःखी होते हैं । पपु० २.१६६, ३.८२९८.८३, वीवच० ७.११३११४
(३) सम्यक्त्वी के लिए श्रद्धेय देव, शास्त्र और गुरु में प्रथम आराध्य । ये गुणों के सागर और धर्मतीर्थ के प्रवर्तक होते हैं । ०८.५१
(४) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १८३
देवक - एक तेजस्वी नृप । यह रोहिणी के स्वयंवर में सम्मिलित हुआ था । हपु० ३१.३१
देवकी - मृगावतो देश में दशार्णपुर नगर के राजा देवसेन (उग्रसेन के भाई और उसकी रानी धनदेवी की पुत्री यह कंस की चचेरी बहिन थी । वसुदेव से उपकृत होकर कंस ने इसका विवाह वसुदेव के साथ करा दिया था । वसुदेव से इसके युगलरूप में मोक्षगामी चरमशरीरीदेवदत्त, देवपाल, अनीकदत्त, अनीकपाल, शत्रुघ्न और जितशत्रु ये छः पुत्र हुए थे । कंस के भय के कारण इन्द्र की आज्ञा से ये छहों पुत्र गम देव द्वारा भद्रपुर नगर के सुदृष्टि सेठ की अलका सेठानी के पास स्थानान्तरित किये गये थे तथा अलका सेठानी के मृत शिशु इसके पास डाल दिये गये थे। सातवें पुत्र नारायण कृष्ण हुए थे । जीवद्यशा के पति कंस तथा पिता जरासन्ध इसी के अन्तिम पुत्र कृष्ण के द्वारा मारे गये थे । मपु० ७०.३६९, ३८४-३८८, ७१.२९१२९६ ० २०.२२४-२२६ ० ११.२९, ३६.४५, ५२.८३, पापु० ११.३५-५७
देवकीर्ति - जयकुमार का पक्षधर एक राजा । मपु० ४४.१०६ देवकुमार - चक्रवर्ती सनत्कुमार का पुत्र । मपु० ६१.१०५, ११८ देवकुरु - (१) तीर्थंकर नेमि द्वारा दीक्षा लेने के समय व्यवहृत एक शिविका (पालकी) । मपु० ७१.१६९, पापु० २२.४४
(२) सुमेरु तथा निषेध कुलाचल के बीच का भोगभूमि का अर्थचक्राकार एक प्रदेश । मपु० ३.२४, ५.१८४, हपु० ५. १६७
(३) निषध पर्वत से उत्तर की ओर नदी के बीच निर्मित एक महाह्रद । मपु० ६३.१९८, हपु० ५.१९६
(४) सौमनस पर्वत का एक कूट । हपु० ५.२२१
(५) विद्युत्प्रभ पर्वत का एक कूट । हपु० ५.२२२
देवगर्भ - राजा बिन्दुसार का पुत्र, शतधनु नृप का पिता । हपु० १८.२० देवपुर- एक चारण ऋद्धिधारी मुनि इनसे अभिलेज और जिय ने धर्मोपदेश सुना था । इन्होंने हो एक वानर को अन्तिम समय में पंच नमस्कार मंत्र सुनाया था जिसे सुनकर वानर मरकर सौधर्म स्वर्ग में चित्रांगद नाम का देव हुआ था । मपु० ६२.४०३, ७०.१३५१३८
देवच्छन्द - (१) लवणांकुश का पक्षधर एक नृप । पपु० १०२.१६८ (२) इक्यासी लड़ियों से निर्मित हार मयु० १६.५८
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