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चपलवेगा-चर्या
धारण किया। राजा जनक इसकी ओर आकृष्ट हो गया। जैसे ही जनक इस पर सवार हुआ यह उसे लेकर आकाश मार्ग से चपलवेग के पास पहुँच गया । पपु० २८.६०-१००
(२) एक विद्याधर । धातकीखण्ड द्वीपस्थ भरतक्षेत्र के सारसमुच्चय देश में स्थित नागपुर नगर के राजा नरदेव ने उत्कृष्ट तपवचरण करते समय इस विद्याधर को देखकर यह निदान किया था कि वह भी विद्याधर बने । मपु० ६८.३-६ चपलवेगा - (१) कौशिक तापसी की पत्नी । यह मृगटंग की जननी थी । मपु० ६२.३८०
(२) एक विद्या । अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज ने यह विद्या सिद्ध की थी । मपु० ६२.३९७ चमर -- (१) विजया की उत्तरश्रेणी का चौदहवाँ नगर । मपु० १९. ७९, ८७ अपरनाम चमरचम्पा । हपु० २२.८५
(२) तीर्थंकर सुमतिनाथ का मुख्य गणधर । हपु० ६०.३४७
(३) कृष्ण के पक्ष का एक नृप । मपु० ७१.७५-७६
(४) श्रीभूति (सत्यघोष ) मंत्री का जीव । मपु० ५९.१९६
(५) इस नाम का इन्द्र । यह भगवान् के जन्मोत्सव में उन पर चमर ढोरता है । मपु० ७१.४२
(६) पारिव्राज्य क्रिया के सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । ऐसे तपस्वियों पर जिनेन्द्र पर्याय में चौसठ चमर दुराये जाते हैं । मपु० ३९.१६४, १८२
(७) अष्ट प्रातिहामों में एक प्रातिहार्य चन्द्रमा के समान जिनेन्द्र पर चौसठ, चक्रवर्ती पर बत्तीस, अर्थचक्री पर सोलह मण्डलेश्वर पर आठ, अर्ध मण्डलेश्वर पर चार महाराज पर दो और राजा पर एक इस प्रकार चमर ढोरे जाते हैं । मपु० २४.४६, ४८, २३.५०-६०, पपु० ४.२७, वीवच० १५.८-९
चमरचम्पा - विजयार्ध की उत्तरश्रेणी के साठ नगरों में एक नगर ।
अपरनाम चमर । मपु० १९.७९, ८७, हपु० २२.८५
मरी - एक विशिष्ट गाय । यह वन में ही पायी जाती है । इसकी पूँछ के बाल सुन्दर और कोमल होते हैं । मपु० १८.८३, २८.४२ चमरेन्द्र - मथुरा नगरी के राजा मधु को शूलरत्न देनेवाला एक असुरेन्द्र ।
शत्रुघ्न द्वारा राजा मधु के मारे जाने पर अपने शूलरत्न को विफल हुआ देखकर इसने क्रोधवश मथुरा में महामारी रोग फैलाया था। इस उपसर्ग की शान्ति सप्तर्षिजों के आगमन के प्रभाव से हुई थी । पपु० ६.१२, ९०.१-४, १६-२४, ९२.९ मूसेना के आठ भेदों में सात भेद होती है। इसमें सात सो उनतीस रथ छः सौ पैंतालीस पयादे और इतने ही पपु० ५६.२-५, ८ चमूपति — सेनापति । यह चक्रवर्ती का एक सजीव रत्न होता है । मपु०
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तीन पृतनाओं की एक चमू इतने ही हावी, तीन हजार घुड़सवार सैनिक होते थे ।
३७.८४
चम्पक - ( १ ) एक वृक्ष तीर्थंकर मुनिसुव्रत को इसी वृक्ष के नीचे कैवल्य हुआ था । मपु० २०.५६, ६७.४६-४७
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जैन पुराणको १२५
(२) कंस का एक हाथी । हपु० ३६.३३
(३) समवसरण में चम्पक वन की दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित चम्पकपुर का निवासी एक देव | हपु० ५.४२८
(४) विजयदेव के नगर से पच्चीस योजन दूर स्थित समवसरण के चार वनों में एक वन । मपु० २२.१६३, १८२, १९९-२०४, हपु० ५.४२२
चम्पकपुर – चम्पक वन की दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित एक नगर । यह चम्पक देव की निवासभूमि है । हपु० ५.४२८
चम्पा - ( १ ) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी की साठ नगरियों में एक नगरी । यह महावीर की विहारभूमि थो। तीर्थंकर वासुपूज्य यहीं जन्मे थे । यहाँ राजा कर्ण ने शासन किया था। मपु० ५८.१७-२०, ७५, ८२, पपु० २०.४८, ० १.८१, ५४०५६ २२.३, ४५.१०५, पा० ७. २६८-२७७, ११.२५, वीवच० १९.२१८-२३४
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चरक - म्लेच्छ जाति का उप भेद । ये वन में रहते थे । मपु० १६. १६१ चरणानुयोग - श्रत का अनुयोग । इसमें मुनि और श्रावकों की चर्या - विधि एवं चारित्रिक शुद्धि का वर्णन रहता है मपू० २.१०० चरम - हरिवंशी राजा पुलोम का कनिष्ठ पुत्र । यह पौलोम का अनुज था । राजा पुलोम इन्हीं दोनों भाइयों को राज्यलक्ष्मी सौंपकर तप के लिए चला गया था । दोनों भाइयों ने रेवा नदी के तट पर इन्द्रपुर बसाया था । इसने जयन्ती और वनवास्य नगर बसाये थे। इसका पुत्र संजय था जो नीतिवेत्ता या अन्त में इसने मुनि दीक्षा लेकर कठोर तप किया था । हपु० १७.२५-२८
चरमांग - चरमशरीरी और तद्भव मोक्षगामी जीव । ये जहाँ तप में लीन रहते हैं वहाँ इनके ऊपर से जाते हुए देवों के विमान रुक जाते हैं । मपु० १५.१२६, ७२.४८-४९ चरमोतमदेह
रमवारीरी इनकी अपमृत्यु नहीं होती ह० ३३.
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चराचरगुरू - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १९६
चचिका - (१) चौरासी लाख हस्त प्रहेलिका प्रमाण काल । यह संख्यात काल का एक भेद है । हपु० ७.३० दे० काल
(२) ललाट पर चन्दन की खौर । हपु० ८.१७९ चर्मण्वती - भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी ( चम्बल) । मपु० २९.
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चर्मरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक अजीव रत्न। इन रत्न की सहायता से भरतेश की सेना जल-विप्लव से पार हुई थी । मपु० ३७.८३-८४, १७१
चर्या (१) गृहस्यों के षट्कर्म जनित हिंसा आदि दोषों की शुद्धि के लिए कथित तीन अंगों-पक्ष, चर्या और साधन में दूसरा अंग । किसी देवता या मंत्र की सिद्धि के लिए तथा औषधि या भोजन बनवाने के लिए किसी जीव की हिंसा न करने की प्रतिक्षा करना नर्या होती है। इस प्रतिज्ञा में प्रमादवश दोष लग जाने पर प्रायश्चित्त आदि से शुद्धि की जाती है तथा अन्त में अपना सब कौटुम्बिक भार पुत्र को सौंपकर घर का परित्याग किया जाता है । मपु० ३९.१४३-१४८
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