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प्रधान सम्पादकीय
प्रभाचन्द्रका यह 'कथाकोश' विभिन्न दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है यद्यपि न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्डके रचयिता के साथ इन प्रभाचन्द्रकी एकरूपता अभी तक एक रहस्य ही बनी हुई है । माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके अन्तर्गत उसके ५५ वें पुष्पके रूपमें इसे उपस्थित करते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता है । स्व. श्री नाथूरामजी प्रेमीने इस ग्रन्थमालाके लिए क्या कुछ नहीं किया ? उनके पास इस 'कथाकोश' की एक ही प्रति थी और उसे वह विभिन्न विद्वानोंके पास भेजा करते थे । अन्तमें, सौभाग्यसे यह प्रति मेरे सहयोगी डॉ. आ. ने. उपाध्येके हाथोंमें आयी । वे इस ग्रन्थका सम्पादन कर और उसे प्रकाशनार्थ इस ग्रन्थमालाको देकर आत्मतुष्टिका अनुभव करें यह उचित ही है, क्योंकि ऐसा करके उन्होंने स्व. प्रेमीजीके प्रति अपने कर्तव्यका ही निर्वाह किया है ।
भविष्य में यदि कुछ और प्रतियाँ प्राप्त होती हैं तो इसके अनेक स्थलोंके सन्देहास्पद अंशोंका निराकरण किया जा सकेगा और ग्रन्थको अपेक्षाकृत अधिक समीक्षात्मक रूप प्रदान किया जा सकेगा । यद्यपि कथाकोशकी भाषा विशुद्ध रूपसे शास्त्रीय स्तरकी नहीं है फिर भी इसकी अपनी विशेषता है, क्योंकि इसका सम्बन्ध मध्य - इण्डो-आर्यन तथा नत्र - इण्डो-आर्यन भाषा-परिवारोंसे है । इस ग्रन्थ में वर्णित कथाओंके अन्य रूप पुराणों और अन्य कथाकोशों में भी पाये जाते हैं, जिनके साथ तुलनात्मक अध्ययनक दृष्टिसे ये कथाएँ उपयोगी हैं । बृहत् कथाकोशकी अपनी विद्वतापू प्रस्तावना में डॉ. उपाध्येने उनपर विस्तारसे प्रकाश डालते हुए भगवती आराधना की टीकाओंको उनका स्रोत बतलाया है ।
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