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: २-५, १३ ]
२. पश्चनमस्कारमन्त्रफलम् ४-५ प्रवर्तते। अहं न जाने । तया सहात्र क्रीडितुमागतः प्रमत्तावस्थायां मां कीलयित्वा तो गृहीत्वा गतः । इदानीमेव तां मोचयामि । तं नत्वा गतः।
___ कतिपयदिनैश्चारुदत्तस्य मातुलसिद्धार्थसुमित्रयोस्तनयया मित्रवत्या विवाहः कृता। स कलादिगुणकाव्यचिन्तया कालं निर्वाहयति । एकदा प्रातरेवागतयाँ सुमित्रया :कृतविलेपनादिभिः सह तनुजां दृष्टोक्तम्--पुत्रि, किं भर्ता सह न सुप्ताऽसि येन विलेपनादिकं तथैव तिष्ठति । तयोक्तम्-- कदाचिन्मम चिन्तामपि न करोति, सर्वदा किंचिदनुमानयन्नेव तिष्ठति। तदनु सुमित्रया देविला भणिता-- तव पुत्रः पठितमूर्खः स्त्रियो वार्तामपि न करोति ।' देविलया स्वदेवररुद्रदत्तायोक्तं चारुदत्तो यथा भोगलालसो भवति तथा कर्तव्यमिति । तदनु तेन वसन्तमालायाः पुत्री वसन्ततिलका रूपलावण्यादिगुणगर्विता; सा संकेतं ग्राहिता 'चारुदत्तम् श्रानयामि यथा जानासि तथा वशीकुरु'इति । अनन्तरं तद्गृहं नीतः। उपवेशनानन्तरं सारैः क्रीडा प्रारब्धा। अनन्तरं पानीये याचिते मतिमोहनचूर्णीपेतं तोयं पायितम् । तदनु विह्वलितमतिर्जातः । तया सह हर्म्यस्योपरिभूमौ रन्तु लग्नः । षड्वर्षेः' षोडशकोटिद्रव्ये भक्षिते पुत्रस्य दुर्व्यसनं समीक्ष्य श्रेष्ठी दीक्षितः । अपरहरण करनेमें प्रवृत्त था। परन्तु मुझे इसका ज्ञान नहीं था। मैं सुकुमारिकाके साथ क्रीड़ा करनेके लिए यहाँ आया था, वह प्रमादकी अवस्था में मुझे यहाँ कीलित करके उसे ले गया है। अब मैं उसे इसी समय जाकर छुड़ाता हूँ। इस प्रकार कहकर और उसे नमस्कार करके वह अमितगति विद्याधर वहाँ से चला गया।
कुछ दिनोंके पश्चात् चारुदत्तका विवाह उसके मामा सिद्धार्थ और सुमित्राकी पुत्री मित्रवतीके साथ कर दिया गया । चारुदत्तका सारा समय कला आदि गुणों और काव्यके चिन्तनमें बीतता था। एक दिन सुमित्रा प्रातःकालमें अपनी पुत्री मित्रवतीके पास आयी। तब उसने पुत्रीके द्वारा कलके दिन किये गए चन्दनलेपनादिको ज्योंका त्यों शरीरमें स्थित देखकर उससे पूछा कि हे पुत्री ! तू क्या पतिके साथ नहीं सोयी थी, जिससे कि विलेपन आदि तेरे शरीरमें जैसेके तैसे स्थित हैं ? पुत्रीने उत्तर दिया कि पति मेरी चिन्ता भी नहीं करता है, वह तो सदा कुछ अनुमान करता हुआ ही- शास्त्रीय विचार करता हुआ ही- स्थित है। तत्पश्चात् सुमित्राने देविलासे कहा कि तुम्हारा लड़का पढ़ा हुआ मूर्ख है । वह स्त्रीकी बात भी नहीं करता है। तब देविलाने अपने देवर रुद्रदत्तसे कहा कि जिस प्रकारसे चारुदत्त विषयभोगाभिलाषी बने वैसा तुम प्रयत्न करो। यह सुनकर रुद्रदत्तने वसन्तमालाकी पुत्री वसन्ततिलकाको, जिसे कि अपने रूप-लावण्यादि गुणोंका गर्व था, संकेत किया कि मैं चारुदत्तको लाता हूँ, तुम उसे जैसे समझो वैसे वशमें करना । तत्पश्चात् वह चारुदत्तको उसके घरपर ले गया। वहाँ बैठानेके पश्चात् उसने गोटोंसे क्रीड़ा ( द्यूतक्रीड़ा ) प्रारम्भ की। पश्चात् चारुदत्तके द्वारा पानीके माँगनेपर उसे बुद्धि को प्रान्त करनेवाले मोहनचूर्णसे संयुक्त पानी पिलाया गया। उसे पीकर चारुदत्तकी बुद्धिमें भ्रान्ति उत्पन्न हो गई। तब वह वसन्ततिलकाको ऊपरके खण्डमें ले जाकर उसके साथ रमण करनेमें लग गया। इस प्रकार वहाँ रहते हुए चारुदत्तको छह वर्ष हो गए। इस बीचमें उसके घरसे सोलह करोड़ प्रमाण द्रव्य वसन्तमालाके घर पहुँच गया। चारुदत्तको इस प्रकारसे दुर्व्यसनासक्त देखकर उसके पिताने दीक्षा
१. फ 'ता' नास्ति । २. फ तनया। ३. ब सकलगुणकाव्य। ४. फ सकलागुणकथाचितया कालं निर्धाटयति । ५. फ प्रातरेव गतया। ६. फ सुमित्रया ह्यकृतिलेप० प श सुमित्रया बाह्यःकृताविलेप० । ७. फंदतुमानप्रमाणादियत्नेन तिष्ठति । ८. फ रुद्रदत्तस्य प्रोक्तं । ९. फे गुणवत्तितासां । १०. फब पायितः । ११. फ षड्वर्षे ।
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