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पुण्यात्र कथाकोशम्
[ २-५, १३ :
तत्र
पुत्रार्थिनी यक्ष-यक्षीः पूजयति । एकदा सुमतिनामदिगम्बर मुख्येन दृष्ट्रोक्तम् - हे' पुत्रि, तवोत्तमपुत्रो भविष्यति, कुदेवपूजया मा सम्यक्त्वं विराधयेति । ततः कतिपयदिनैस्तनयश्चारुदत्तोऽजनि । स च प्रधानपुत्रैर्हरिशिख-गोमुख वराहक- परंतपोमरुभूतिभिः सह वृद्धः । पुराऽग्निमन्दरगिरौ यमधरमुनिः शिवं प्राप्तः । तत्र प्रतिवर्ष मार्गशीर्षे यात्रा भवति । राजादिभिर्गच्छद्भिश्चारुदत्तो व्याघोटितः । स च मित्रैर्नदीतटस्थोपवनं क्रीडार्थ गतः । तत्र परिभ्रमता कदम्बशाखिनि कीलितो मूर्च्छा प्रपन्नः पुरुषो दृष्टः । खेटस्योपरिस्थितदृष्टिभावेन ज्ञात्वा चारुदत्तः खेटं शोधयित्वा गुटिकात्रयमपश्यत् । तत्र कीलोद्भेदिनीप्रभावेण विगतकीलनः संजीविनी सामर्थ्येनोन्मूच्छितः व्रणसंरोहणीप्रभावेन विगतव्रणश्च कृतः सन् चारुदत्तं प्रणम्यावदत् - शृणु, हे भव्योत्तम, विजयार्धदक्षिणश्रेणौ शिवमन्दिरपुरेश महेन्द्रविक्रममत्स्ययोः सुतोऽहममितगतिः धूमसिंह - गोरिमुण्डमित्राभ्यां सह हीमन्तपर्वतं गतः । तत्र हिरण्यरोमनाम क्षत्रियतापसतनुजा निर्जितामराङ्गनारूपविभवा सुकुमारिकानाम्नी दृष्टा याचिता विवाहिता च मया । तामुद्वीक्ष्य धूमसिंह आसक्तान्तरङ्गो हरणार्थ का नाम देविला था । उसके कोई पुत्र नहीं था । इससे वह पुत्रप्राप्तिकी अभिलाषासे यक्षयक्षियोंकी पूजा किया करती थी । एक समय सुमति नामक दिगम्बराचार्यने उसे यक्ष-यक्षियों की पूजा करते हुए देखकर कहा कि हे पुत्री ! तेरे उत्तम पुत्र होगा । तू कुदेवोंकी पूजा करके सम्यग्दर्शनकी विराधना मत कर । तत्पश्चात् कुछ दिनों में उसके चारुदत्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । वह हरिशिख, गोमुख, वराहक, परंतप और मरुभूति इन प्रधानपुत्रों के साथ वृद्धिंगत हुआ । इसी नगरके बाहिर स्थित अग्निमन्दर पर्वत ( अथवा अग्निदिशागत मन्दर ) के ऊपर यमधर मुनि मुक्तिको प्राप्त हुए थे । वहाँ प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष मास में यात्रा भरती है । इस यात्रामें चारुदत्त भी जाना चाहता था । परन्तु वहाँ जाते हुए राजा आदिने उसे वापिस कर दिया । तब वह मित्रोंके साथ नदीके तटपर स्थित एक उपवनमें क्रीड़ा करनेके लिए चला गया । वहाँ घूमते हुए उसे कदम्ब वृक्षसे कीलित होकर मूर्छाको प्राप्त हुआ एक पुरुष दिखा । उसकी दृष्टि ढालके ऊपर स्थित थी । इससे चारुदत्तने अनुमान करके उस ढालको तलाशा | उसमें उसे तीन औषधकी बत्तियाँ ( या गोलियाँ) दिखीं। उनमें जो कीलों को नष्ट करनेवाली औषधि थी उसके प्रभाव से चारुदत्तने उसकी कीलों को दूर किया, संजीवनी औषधके सामर्थ्य से उसने उसकी मूर्च्छीको नष्ट किया, तथा व्रणसंरोहिणी औषधके प्रयोग से उसने उसको घावरहित कर दिया । तब वह चारुदत्त को नमस्कार करके बोला कि हे श्रेष्ठ भव्य ! मेरी बात सुनिये - विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें शिवमन्दिर नामका एक नगर है । वहाँ महेन्द्रविक्रम नामका राजा राज्य करता है । रानीका नाम मत्स्या है। उन दोनोंका मैं अमितगति नामका पुत्र हूँ । मैं धूम सिंह और गोरिमुण्ड मित्रोंके साथ हीमन्त पर्वत के ऊपर गया था । वहाँपर मैंने हिरण्यरोम नामक एक क्षत्रिय तापसकी कन्या को देखा । वह सुकुमारिका नामकी बालिका अपनी सुन्दरतासे देवांगनाओंके भी रूपको तिरस्कृत करती थी । मैंने उसके लिए उक्त तापससे याचना की। उसने उसका विवाह मेरे साथ कर दिया। सुकुमारिका को देखकर धूमसिंहका मन उसके विषय में आसक्त हो गया । वह उसका अप
१. श यक्षयक्षी व यक्षं यक्षी । २. फ दिगंबरमुनिना दृष्ट्वोक्तः । ३. श हि । ४. फ ब श मंदिर ! ५. प व्याघोटितं फ व्याघुटितः ब व्याघोटितः । ६. फ दृष्ट | ७. फ कोलनं । ८. फ स तु । ९. शं विभावा । १० क याचिता विवाहि च ।
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