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१. पूजाफलम् ५
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पुत्रैको देशान्तरं गतः । तेनाहमेवेत्युक्त्वा प्रत्यये पूरिते पित्रा द्वात्रिंशत्कोटिद्रव्यस्य स्वामी कृतः । तद्द्द्रव्यं वसन्त- अमरूरमणाभ्यां च वेश्याभ्यां भक्षितम् । तदनुचौर्येण प्रवर्तते स्म । एकदा शशाङ्कपुरं गतः । एकस्यां रात्रौ राजभवनं प्रविश्य शय्यागृहं प्रविष्टः । तस्मिन्नेव दिने तदधीशनन्दिवर्धनराजेन शशाङ्कमुखभट्टारकपार्श्वे धर्ममाकर्ण्य विरक्तेन रात्रौ राशी प्रतिबोध्यते - प्रातर्मया तपश्चरणं गृह्यते, त्वया दुःखं न कर्तव्यमिति । तदाकर्ण्य मृदुमतिरपि प्रव्रजितः । द्वादशे वर्षे एकाकी विहर्तु लग्नः ।
प्रस्तावेऽत्रापरं वृत्तान्तम् । आलोकनगरे बाह्यपर्वतस्योपरि गुणसागरभट्टारकः चातुर्मासिकप्रतिमायोगेन स्थितः । प्रतिज्ञासमाप्तौ देवागमे पुराचर्य जातम् । गगनेन * तो भट्टारको जनैर्न दृष्टः । चर्यार्थमागतं मृदुमतिं दृष्ट्वा अयमेव स इति पूजितः । सोऽपि मौनेन स्थितः । अस्मिन्नवसरे तिर्यग्गतिनामकर्मोपार्ण्य ब्रह्मोत्तरं गतः । तत्रोभयोर्मेलापकः स्नेहश्च जातः । तस्मादागत्याभिरामो भरतोऽभूदितरो हस्तीति जातिस्मरणकारणं श्रुत्वा साश्चर्यो वैराग्यपरायणो भूत्वा भरतो रामादिभिः क्षमितव्यं विधाय प्रव्रजितवान् । केकय्यपि त्रिशतराजपुत्रीभिः पृथिवीमत्यार्यिकानिकटे दीक्षिता । गजोऽपि विशिष्टं श्रावकधर्म गृहीतवान्, देशमध्ये परिभ्रमन् प्रासुकाहारं जलं च गृहीत्वा दुर्धरानुष्ठानं कृत्वा
कहकर जब उसने इस बातका विश्वास करा दिया तब पिताने उसे बत्तीस करोड़ द्रव्यका स्वामी बना दिया । उस सब द्रव्यको वसन्तरमणा और अमररमणा नामकी दो वेश्याओंने खा डाला । तत्पश्चात् वह चोरी करनेमें प्रवृत्त हो गया । किसी एक दिन वह शशांकपुरमें जाकर राजभवनके शयन - गृहमें प्रविष्ट हुआ। उसी दिन उक्त पुरका स्वामी नन्दिवर्धन राजा शशांकमुख भट्टारकके पासमें धर्मको सुनकर विषय-भोगोंसे विरक्त होता हुआ रात्रिमें रानीको समझा रहा था कि मैं कल प्रातःकालमें जिन-दीक्षाको ग्रहण करूँगा, तुम्हें इसके लिए दुखी नहीं होना चाहिए । इसको सुनकर मृदुमति भी विरक्त होकर दीक्षित हो गया । वह बारहवें वर्ष में एकाकी विहार में संलग्न हुआ ।
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वहाँ परस्पर मिलकर
इस बीचमें यहाँ एक दूसरी घटना घटित हुई- आलोक नगर में बाह्य पर्वतके ऊपर गुणसागर भट्टारक चातुर्मासिक प्रतिमायोगसे स्थित थे । प्रतिज्ञा ( चातुर्मास ) की समाप्ति होनेपर देवोंके आनेसे नगरमें आश्चर्य हुआ । गुणसागर मुनीन्द्र आकाश मार्गसे विहार कर गये थे । इसलिए वे लोगों के देखने में नहीं आये। इसी समय वहाँ मृदुमति आहारके निमित्त आये । उनको देखकर लोगोंने यह समझकर कि ये वे ही मुनीन्द्र हैं उनकी पूजा की। वे भी मौनपूर्वक स्थित रहे । इससे वे तिर्यग्गति नामकर्मको उपार्जित करके ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में गये उन दोनोंमें स्नेह उत्पन्न हुआ । वहाँ से आकर अभिरामका जीव भरत और दूसरा ( मृदुमति ) हाथी हुआ है । इस प्रकार हाथीके जातिस्मरणके कारणको सुनकर आश्चर्यको प्राप्त हुए भरको बहुत वैराग्य हुआ । उसने रामचन्द्रादिसे क्षमा-याचना करके दीक्षा ले ली । केकयी भी तीन सौ राजपुत्रियों के साथ पृथ्वीमती आर्यिका के निकटमें दीक्षित हो गई । हाथीने भी विशिष्ट श्रावकधर्मको ग्रहण किया । वह देशमें परिभ्रमण करता हुआ प्रासुक आहार और जलको लेता था । इस प्रकारसे वह दुर्धर अनुष्ठानको करके ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें गया । उस देशमें रहनेवाले मनुष्य 'यह देव
१. प ब श वसंतडमरा० । २. फ चौर्येऽप्यप्रवर्त्तते, ब चौर्येण प्रवर्त्तति । ३. प श ० वर्ष एकाकी फ० ० वर्ष काकी । ४. फ गगने । ५. फ कैकापि, प कैकय्यपि, शकैकयापि ।
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