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पुण्यावकथाकोशम्
[ १-५ :
नामा वणिगभूत्, तद्भार्या धारिणी, तयोः स स्वर्गादागत्य भूषणनामा पुत्रोऽभूत् । तस्य च मुनिदर्शनतपश्चरणादेशभया त्पित्राष्टादश । कोटिद्रव्येश्वरेण सर्वतोभद्रमाटे स्थापितः । स कुमार इव तत्र तिष्ठति स्म । श्रीधरभट्टारक के बलपूजार्थ जातदेवागमं दृष्ट्वा जातिस्मरो भूत्वा गूढवेषेण निर्गत्य समवसरणं गच्छन् श्रान्तो मध्ये उपविष्टः । तच्छरीरसौगन्ध्यासक्त्यागतेन सर्पेण भक्षितो मृत्वा माहेन्द्रं गतः । पिता तिर्यग्गतिसमुद्रं प्रविष्टः ।
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माहेन्द्रादागत्य पुष्करार्धद्वीपे चन्द्रादित्यपुरेशप्रकाशयशोमाधव्योर्जगद्धुतिनामा पुत्रो जातः । सत्पात्रदानेन देवकुरुषूत्पन्नः । ततः स्वर्गे जातः । तस्मादागत्य जम्बूद्वी पापरविदेहनन्द्यावर्त पुरेशसकलचक्रवर्त्यचलवाहन हरिण्योः अभिरामनामा पुत्रो जातः । चतुः सहस्रान्तःपुराaralsपि विरागो पित्रा तपश्चरणे निषिद्धोऽपि गृहे दुर्द्धरमणुव्रतं परिपाल्य ब्रह्मोत्तरे जातः । स धनदत्तः भ्रान्त्वा पोद वैश्य- अग्निमुखशकुनयो मृदुमतिपुत्रो जातः । स च न पठति सप्तव्यसनाभिभूतश्च जनोद्दाहात्पित्रा निःसारितः । देशान्तरे पठितो युवा च भूत्वागत्य देशिकवे पेण गृहं प्रविष्टः । पानीयं पाययन्त्या मात्रा रुदितम् । तेन किं कारणमिति पृष्टया तव सदृशः
नामका वैश्य हुआ । इसकी पत्नीका नाम धारिणी ( वारुणी ) था । इन दोनोंके वह (रमणका जीव देव ) आकर भूषण नामक पुत्र हुआ । उसके पिताने— जो कि अठारह करोड़ द्रव्यका स्वामी था - उसे मुनिदर्शन और तपश्चरणके आदेशके भय से सर्वतोभद्र माटपर स्थापित किया । वह कुमारके समान वहाँ स्थित रहा । किसी समय उसने श्रीधर भट्टारकके केवलज्ञानकी पूजा के निमित्त जाते हुए देवोंको देखा । इससे उसे जातिस्मरण हो गया । वह गुप्तरूपसे निकलकर समवसरणको जा रहा था कि थककर बीच में बैठ गया । उसके शरीरकी सुगन्धिमें आसक्त होकर एक सर्प वहाँ आया और उसने उसे काट लिया । वह मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में गया । उसका पिता धनदत्त तिर्यंचगतिरूप समुद्र में प्रविष्ट हुआ ।
तत्पश्चात् माहेन्द्र स्वर्गसे आकर वह पुष्करार्ध द्वीपके भीतर चन्द्रादित्यपुरके अधिपति प्रकाशयश और उसकी पत्नी माधवीके जगद्युति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । फिर वह सत्पात्रदान के प्रभावसे देवकुरु ( उत्तम भोगभूमिमें) और तत्पश्चात् स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीपके अपरविदेहगत नन्द्यावर्त पुरके अधीश्वर सकल चक्रवर्ती अचलवाहन और रानी हरिणी के अभिराम नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । वह चार हजार ( ४००० ) स्त्रियोंका स्वामी होकर भी विरक्त रहा | उसे तपश्चरणके लिए पिताने रोक दिया था, इसीलिए वह घरमें रहकर ही दुर्धर अणुव्रतका परिपालन करता हुआ ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ । वह धनदत्तका जीव परिभ्रमण करके पोदनपुर में वैश्य अग्निमुख और शकुना के मृदुमति नामक पुत्र हुआ । उसने सात व्यसनोंमें आसक्त होकर कुछ पढ़ा नहीं था । लोगों के उलाहनोंसे संतप्त होकर पिताने उसे घर से निकाल दिया । तब देशान्तरमें जाकर उसने विद्याध्ययन किया। अब वह युवा हो गया था । वह पथिकके वेशमें आकर घरके भीतर प्रविष्ट हुआ । उसकी माँ उसे पानी पिलाते हुए रो पड़ी। उसने उसके रोनेका कारण पूछा । उत्तर में उसने कहा कि तुम्हारे समान मेरा एक पुत्र देशान्तर में गया है । 'वह मैं ही हूँ' इस प्रकार
१. क ० दर्शनात्तप० । २. फ समवसूति । ३. फ सौगंध्यासक्तागतेन । ४. ब महेन्द्रं । ५. ब महेन्द्रादागत्य । ६. ब पौदने । ७. ब जनोडाहात् ० । ८ ब भवादृशः ।
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