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________________ ३२४ पुण्यास्रवकथाकोशम् [६-१५, ५६ : सुष्वाप । वत्साः स्वयं गृहमागताः। तानवलोक्य पुत्रो नागत इति मृष्टदाना रोदिति स्म। तदुपरोधेन बलभद्रो द्वि-त्रै त्यस्तं गवेषयितुं निर्जगाम । वत्सपालो गृहमागच्छन् तं विलोक्य भयेन गिरिं चटितः, इतरो व्याधुटितः। स वत्सपालस्तत्र गुहाद्वारि स्थितः। तत्रं स एव सुव्रतमुनिर्वन्दितुमागतश्रावकाणां व्रतस्वरूपं तत्फलं च कथयस्तस्थौ । वत्सपालो बहिः शृण्वन् स्थितः। तस्य व्रते महती श्रद्धा बभूव । मुनि नत्वा श्रावकाः ‘णमो अरहंताणं' भणित्वा निर्गताः। सोऽपि णमो अरहंताणं' भणन् तत्पृष्ठे दरंदरं गच्छन् व्याघ्र 'णमो अरहंताणं' वदन् मृतः, सौधर्मे महर्द्धिको देवो जशे, भवप्रत्ययबोधेन स्वस्य दानादि. फलं ज्ञात्वा करणीयं च कृत्वा सुखेन तस्थौ। इतः प्रभाते बलभद्रण तन्माता तगिरि गत्वा तत्कलेवरं दृष्टातिशोकं चकार । स सुरः संबोधयामास । तदनुसा जन्मान्तरेऽयं मत्पुत्रो भवत्विति दीक्षिता, समाधिना तत्र कल्पे देवो जाता। बलभद्रस्तपसा तत्कल्पे सुरो जज्ञे । तत्र दिव्यसुखमनभय बलभद्रचरः सुर आगत्य धनपालोऽभत. मृष्टदानाचरी प्रभावती जाता। पूर्व ये च बलभद्र देहजास्ते सांप्रतं देवदत्तादयोऽभूवन् । वत्सपालचरस्त्वं जातोऽसि पूर्व ति . वहाँ जाकर वह एक वृक्षके नीचे सो गया। इस बीचमें बछड़े स्वयं घर आ गये । उनको देखकर साथमें पुत्रके न आनेसे मृष्ट दाना रोने लगी। तब उसके आग्रहसे बलभद्र दो तीन सेवकोंके साथ उसे खोजनेके लिये गया। इधर अकृतपुण्य घरकी ओर ही आ रहा था। वह बलभद्रको आता हुआ देखकर भयके कारण पहाड़के ऊपर चढ़ गया । उधर अकृतपुण्यके न मिलनेसे वह बलभद्र घरपर वापस आ गया । वह अकृतपुण्य पहाड़के ऊपर जाकर एक गुफाके द्वारपर स्थित हो गया। उस गुफाके भीतर वे ही सुव्रत मुनि वन्दनाके लिए आये हुए श्रावकोंको व्रतोंके स्वरूप और उनके फलका निरूपण कर रहे थे। अकृतपुण्य उसको सुनते हुए बाहर ही स्थित रहा । तव उसकी व्रतके विषयमें गाढ़ श्रद्धा हो गई। श्रावक जन धर्मश्रवण करनेके पश्चात् मुनिको नमस्कार करके ‘णमो अरहंताणं' कहते हुए उस गुफासे निकल गये । उधर वह अकृतपुण्य भी 'णमो अरहंताणं' कहता हुआ उनके पीछे दूर दूरसे जा रहा था। इसी बीचमें उसके ऊपर एक व्याघ्रने आक्रमण कर दिया । तब वह 'णमो अरहंताणं' कहता हुआ मरा व सौधर्म स्वर्गमें महद्धिक देव उत्पन्न हुआ। वहाँ वह भवप्रत्यय अवधिज्ञानके द्वारा अपने दान आदिके फलको जानकर कर्तव्य कार्यको करता हुआ सुखपूर्वक स्थित हुआ। इधर सबेरा हो जानेपर उसकी माता (मृष्टदाना) बलभद्र के साथ उस पहाड़के ऊपर गई । वहाँपर उसके निर्जीव शरीरको देखकर उसे बहुत शोक हुआ। उस समय उसे उसी देवने आकर सम्बोधित किया। तत्पश्चात् मृष्टदानाने 'जन्मान्तरमें भी यह मेरा पुत्र हो' इस प्रकारके निदानके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। वह तपके प्रभावसे उसी कल्पमें देवी हुई। बलभद्र भी तपको ग्रहणकर उसके प्रभावसे उसी कल्पमें देव उत्पन्न हुआ। वहाँपर दिव्य सुखको भोगकर बलभद्रका जीव वह देव वहाँ से च्युत होकर धनपाल हुआ है और वह देवी-जो पूर्वभवमें मृष्टदाना थी-वहाँ से आकर प्रभावती हुई है । पूर्वमें जो बलभद्रके पुत्र थे वे इस समय देवदत आदि हुए हैं। और अकृतपुण्यका जीव, जो सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था, वह वहाँसे १. ब 'तत्र स एव सुव्रत मुनि' इत्यादि 'तस्थौ' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. फ अरिहंताणं । ३. प फ अरिहंताणं । ४. ज पूर्वमेव बल प फ श पूर्वजे च बल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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