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________________ : ६-१५, ५.६ ] ६. दानफलम् १५ ३२३ भिक्षुक आगच्छति तं गन्तुं मा प्रयच्छ, तस्य प्रासं दत्त्वा भोदयावः, इति निरूप्य सा गता। तावन्मासोपवासस्य पारणाह्ने सुव्रतमुनिस्तद्ग्रामपतिगृहं चर्यार्थमागतस्तं विलोक्याकृतपुण्योऽयं महाभिनुको वस्त्राद्यभावात, तस्मादस्य गन्तुं न ददामि, तस्य संमुखं गत्वोरुवान्-हे पितामह, मदीयमात्रा पायसं पक्वम् , तुभ्यमपि भोक्तं दीयते, तिष्ठ यावन्मन्मातागच्छति । मुनिः स्थातुं मे मार्गो न भवतीति भणित्वा गच्छंस्तेन पादयोधृतः, पितामहात्यपूर्व पायसं भुक्त्वा गच्छ, तब किं नष्टमिति भणन् धृत्वा स्थितः। तावन्मृष्टदाना समागत्य घटमुत्तार्योत्तरीयं स्कन्धे निक्षिप्य हे परमेश्वर, तिष्ठति यथावत्स्थापितवती। बलभद्रगृहादुष्णोदकं भाजनं चानीयातिविशुद्धचेतसा दानमदत्त । अकृतपुण्योऽपि तद्भोजने जहर्ष, 'श्रयं देवोऽद्य मे गृहेऽभुङ्क्तति धन्योऽहम्' भणन्नवलोकयन् तस्थौ । मुनिरक्षीणमहानसद्धिप्राप्त इति सारसवती चक्रधरस्कन्धावारेऽपि भुक्तेतद्दिने न क्षोयते । पुत्रं भोजयित्वा तया सकुटुम्बो बलभद्रो भोजितो विश्वतद्ग्रामजनाय भाजनानि पूरयित्वा रसवतीं ददौ मृष्टदाना। स वत्सपालो द्वितोयदिने उद्धृतं पायसं भुक्त्वाटवीं ययौ। तत्रैकस्मिन् वृततले भी कहती गई कि इस बीचमें जो कोई भिक्षुक ( साधु ) आवे उसे जाने न देना, उसके लिये भोजन कराकर तत्पश्चात् हम दोनों खावेगे । ___ इतनेमें ही मासोपवासके समाप्त होनेपर पारणाके दिन सुव्रत नामके मुनि उस बलभद्रके घरपर चर्याके लिये आये। उन्हें देखकर अकृतपुण्यने विचार किया कि यह तो भिक्षुक ही नहीं, महाभिक्षुक ( अतिशय दरिद्र) है, क्योंकि, इसके पास तो वस्त्र आदि भी नहीं है । इसलिये मैं इसे नहीं जाने देता हूँ। इस विचारके साथ वह उनके सामने गया और बोला कि बाबा, मेरी माँ ने खीर पकायी है, वह तुम्हारे लिए भी खानेको देगी । इसलिये जब तक मेरी माता नहीं आ जाती है तब तक तुम यहींपर ठहरो । परन्तु फिर भी जब मुनि 'मेरे लिए ठहरनेका मार्ग नहीं है' यह कहकर आगे जाने लगे तब उसने उनके दोनों पाँव पकड़ लिये। वह बोला कि बाबा ! अतिशय अपूर्व खीरको खाकर जाओ न, इसमें तुम्हारा क्या नष्ट होता है । यह कहकर वह उन्हें पकड़े ही रहा । इतनेमें मृष्ट दाना भी आ गई । वह घड़ेको उतारकर उत्तरीय वस्त्रको कन्धेके ऊपर डालती हुई बोली- हे परमेश्वर ! ठहरिये, इस प्रकार उसने उनका विधिपूर्वक पड़िगाहन किया और फिर बलभद्रके घरसे उप्ण जल एवं पात्रको लाकर अतिशय निर्मल परिणामोंके साथ उन्हें आहारदान दिया। उनके आहारके समय अकृतपुण्यको भी बहुत हीं हुआ । यह देव मेरे घरपर भोजन कर रहा है, इसलिए मैं धन्य हूँ; यह कहकर वह उनके आहारको देखता हुआ स्थित रहा। वे मुनि अक्षीणमहानस ऋद्धिके धारक थे, इसलिए यदि उस रसोईका उपभोग चन्द्रवर्तीका कटक भी करता तो भी वह उस दिन समाप्त नहीं हो सकती थी। मुनिके आहारके पश्चात् मृष्टदानाने अपने पुत्रको भोजन कराया और तत्पश्चात् कुटुम्बके साथ बलभद्रको भी भोजन कराया। फिर भी जब वह रसोई समाप्त नहीं हुई तब उसने पात्रोंकी पूर्ति करके समस्त गाँवकी जनताके लिये भोजन दिया। दूसरे दिन वह बछड़ोंका रक्षक ( अकृतपुण्य ) बची हुई खीरको खाकर जंगलमें गया । १. श मा मयछ। २. पब श भोक्षाव । ३. प किं तिष्टमिति श कि न तिष्टमिति । ४. ब भोजनानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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