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२२२ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-५, ३८ भविष्यतीति क्षोभनिमित्तं द्वितीयमुपवासं चकार । त्रिरात्रपारणायां राजश्रेष्ठ यादय भागत्य ववन्दिरे बभणुश्वाहमहं स्थापयिष्यामि । तदा नन्दिमित्रो बभाषेऽद्याप्युपोषितोऽहम् । श्रेष्ठयादिभिरुक्तमेवं न कर्तव्यम् । तेनोक्तं कृतमेव । तदा राजसभायां श्रेष्ठिना नूतनतपस्विगुणव्यावर्णनं कृतम् । तदा देवी प्रातरहं स्थापयिष्यामीति महात्रिरात्रोपवासपारणायां सकलान्तःपुरेण तत्र गता, गुरुशिष्यो क्यन्दे। तदा नन्दिमित्रो मेऽद्याप्युपवासशक्तिर्विद्यते, यदा राजा आगमिष्यति तदा पारणां करोमोति मनसि संचिन्त्योक्तवान् स्वामिन्नद्याप्युपोषितोऽहम् । तदा देवी तत्पादयोर्लग्नोपवासो न कर्तव्य इति । सोऽवोचत् गृहोतोपवासस्य त्यजनं किं करोमि । गुरुरप्यवोचत् त्यजनमनुचितमिति । देवो व्याघुटय जगाम । नन्दिमित्रः पञ्चनमस्कारान् भावयन् तस्थौ । रात्रिपश्चिमयामे गुरुणोक्तं हे नन्दिमित्र, तेऽन्तर्मुहूर्तमेवायुरिति संन्यासं गृहाण । प्रसाद इति भणित्वा नन्दिमित्रो गुरूक्तसंन्यासक्रमेण तनुं तत्याज सौधर्मे देवो जज्ञे। इतो नन्दिमित्रो मुनिः कालं कृतवानिति राजादय आगत्य सुवर्णादिवृष्टिं कुर्वन्तस्तत्क्षपकंयावत्प्रभावयन्ति तावत्स देवो नभोऽङ्गणं स्वपरिवारविमानादिभिर्व्याप्य स्वयं सकलदेवीसमूहेन परिवृतो विमाने तस्थौ। नन्दिमित्रस्य गृहस्थकालीनं स्वरूपं कृत्वा
लेश्या जैसे हुए । कल इसके आश्रयसे श्रावकोंमें कैसा क्षोभ होता है, यह देखने के लिए उसने दूसरा उपवास ग्रहण कर लिया। तीसरे दिन पारणाके निमित्तसे राजसेठ आदिने जाकर उसकी बन्दना करते हुए कहा कि 'मैं पडिगाहन करूँगा, मैं पडिगाहन करूँगा'। इसपर वह नन्दिमित्र बोला मैंने आज भी उपवास किया है । तब सेठ आदिने कहा कि ऐसा न कीजिए । इसके उत्तरसे उसने कहा कि मैं तो वैसा कर ही चुका हूँ। तत्पश्चात् सेठने राजदरबार में नवीन तपस्वीके गुणोंका वर्णन किया। उसे सुनकर रानीने विचार किया कि प्रातःकालमें मैं उनको आहार दूंगी। इसी विचारसे वह तीन दिनके उपवासके पश्चात् पारणाके समय समस्त अन्तःपुरके साथ वहाँ गई । उसने गुरु और शिष्य दोनोंकी वंदना की। उस समय नन्दिमित्रने मनमें विचार किया कि आज भी मैं उपवास करने में समर्थ हूँ, जब राजा आवेगा तब मैं पारणा करूँगा; यही सोचकर उसने कहा हे स्वामिन् ! आज भी मेरा उपवास है । तब रानीने उसके पाँवोंमें गिरकर कहा कि अब उपवास न कीजिए । इसपर उसने उत्तर दिया कि ग्रहण किये हुए उपवासको मैं कैसे छोड़ दूँ । गुरुने भी कहा कि ग्रहण किये हुए उपवासको छोड़ना योग्य नहीं है । तब रानी वापिस चली गई। उधर वह नन्दिमित्र पंचनमस्कार मंत्रके पदोंका चिन्तन करता हुआ स्थित रहा। तत्पश्चात् रात्रिके अन्तिम पहर में गुरुने कहा हे नन्दिमित्र ! अब तेरी अन्तमुहूर्त मात्र ही आयु शेष रही है, इसलिए तू संन्यासको ग्रहण कर ले । तब उसने प्रसाद मानकर गुरुके कहे अनुसार विधिपूर्वक संन्यास ग्रहण कर लिया। इस प्रकार वह संन्यासके साथ शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ। इधर राजा आदि नन्दिमित्र मुनिके स्वर्गवासको जानकर वहाँ सुवर्णादिकी वर्षा द्वारा क्षपककी प्रभावना कर रहे थे और उधर इसी समय उस देवने अपने परिवारके साथ वहाँ पहुँचकर विमानोंसे आकाशको व्याप्त कर दिया था । स्वयं समस्त देवियों के साथ विमानमें स्थित था । तब वह नन्दिमित्रके गृहस्थ अवस्थाके वेषमें क्षपकके आगे नृत्य करता हुआ यह बोल रहा था---
१. ज बभुणुश्चाफ वभाणुश्चा प श बभाणश्चा। २. प तदा। ३. ज प त्यजतुम। ४. ज
भावयान् श 'भावयन्' नास्ति । ५. ज प श विमानेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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