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: ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४.५
१२१ विप्राः 'अहो जैनधर्म एव धर्मो नान्यः' इति भणित्वा बहवो दीक्षिताः, नागश्रीत्रिवेद्यादयो ब्राह्मण्यश्च । राजा स्वपुत्रं लोकपालं राजानं कृत्वा बहुभिर्दीक्षितोऽन्तःपुरमपि ।
ततः संघेन सार्ध सूर्यमित्राचार्यो विहरन् राजगृहमागत्योद्यानेऽस्थात् । तदा कौशाम्ब्यधिपोऽतिबलश्च स्वपितृव्यं सुबलमवलोकयितुमागत्य तत्रास्थात् । तौ वनपालकादववुध्य वन्दितुं जग्मतुः। दीप्तर्द्धिप्राप्तं सूर्यमित्रं विलोक्य राजा तथाविधोऽयमेवंविधोऽभूदिति बहुविस्मयं गतोऽतिबलाय राज्यं ददानस्तेन निवृत्तौ कृतायां मीनध्वजाख्यतनुजाय तद्दत्त्वातिबलादिभिर्बहुभिर्दिदीक्षे, तद्वनिता अपि । इत्याद्यनेकदेशेषु धर्मप्रवर्तनां कुर्वन् सूर्य मित्रोऽस्थात् । नागश्रीबहुकालं तपो विधाय मासमेकं संन्यसनं चकार वितनुबभूवाच्युते पद्मगुल्मविमाने महर्द्धिकः पननाभनामा देवो जज्ञे । नागशर्मापि तत्रैबामरो
दी पद्मनाभस्याङ्गरक्षोऽजनि । चन्द्रवाहनसुबलातिबला श्रारणेऽतिविभूतियुक्ताः सुरा जज्ञिरे। अन्येऽपि स्वयोग्यां गतिं ययुः। सूर्यमित्राग्निभूती वाराणस्यां समुत्पन्नकेवलावग्निमन्दिरगिरी निवृत्तौ। पद्मनाभस्तन्निर्वाणपूजां विधाय द्वाविंशतिसागरोपमकालं सुखं रेमे। दीक्षा धारण कर ली। उनके साथ नागश्री और त्रिवेदी आदि ब्राह्मणियोंने भी दीक्षा ले ली । राजा चन्द्रवाहन अपने पुत्र लोकपालको राज्य देकर बहुतोंके साथ दीक्षित हो गया। उसके साथ उसके अन्तःपुरने भी दीक्षा ग्रहण कर ली।
तत्पश्चात् सूर्यमित्र आचार्य संघके साथ विहार करते हुए राजगृहमें आकर उद्यानके भीतर विराजमान हुए। उस समय कौशाम्बीका राजा अतिबल भी अपने चाचा सुबलसे मिलनेके लिये वहाँ आकर स्थित हुआ । जब उन दोनों (सुबल और अतिबल) को वनपालसे सूर्यमित्र आचार्यके शुभागमनका समाचार ज्ञात हुआ तब वे दोनों उनकी बन्दनाके लिये गये। उस समय सूर्यमित्र आचार्यको दीप्त ऋद्धि प्राप्त हो चुकी थी। उनको दीप्त ऋद्धिसे संयुक्त देखकर राजा सुबलने विचार किया कि जो सूर्यमित्र मेरे यहाँ पुरोहित था, वह तपके प्रभावसे इस प्रकारकी ऋद्धिको प्राप्त हुआ है। इस प्रकार तपके फलको प्रत्यक्ष देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ। तब उसने अतिबलके लिये राज्य देकर दीक्षा लेनेका निश्चय किया । परन्तु जब अतिबलने राज्यको ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया तब उसने मीनध्वज नामक अपने पुत्रको राज्य देकर अतिबल आदि बहुतसे राजाओंके साथ जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली। इनके साथ ही उनकी स्त्रियोंने भी दीक्षा ले ली । इस प्रकारसे सुमित्र आचार्यने अनेक देशोंमें विहार करके धर्मका प्रचार किया। नागश्रीने बहुत समय तक तपश्चरण किया । अन्तमें उसने एक मासका संन्यास लेकर शरीरको छोड़ दिया। तब वह अच्युत स्वर्गके भीतर पद्मगुल्म विमानमें पद्मनाभ नामक महर्द्धिक देव हुई। इसी स्वर्गमें वह नागशर्मा भी देव उत्पन्न हुआ। त्रिवेदीका जीव मृत्युके पश्चात् उस पद्मनाभ देवका अंगरक्षक देव हुआ। चन्द्रवाहन, सुबल और अतिबल राजा आरण स्वर्गमें अतिशय विभूतिके धारक देव हुए। अन्य संयमी जन भी यथायोग्य गतिको प्राप्त हुए। सूर्यमित्र और अग्निभूतिको वाराणसी पहुँचनेपर केवलज्ञान प्राप्त हुआ। वे दोनों अग्निमन्दिर पर्वतके ऊपर मोक्षको प्राप्त हुए। तब उस पद्मनाभ देवने आकर उनका निर्वाणोत्सव सम्पन्न किया। इस देवने अच्युत स्वर्गमें स्थित रहकर बाईस सागरोपम काल तक वहाँ के सुखका उपभोग किया।
१. ब त्रिविद्यादयो । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श सुपितृव्यं । ३. श धर्मवर्तनां ।
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