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१२० पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ३-४, २१-२२ : वायुभूतिना कोपेन मुखे पादेन ताडिता' सा निदानं चकार जन्मान्तरे तव पादौ . भक्षयिष्यामि।ततो वायुभूतिः सप्तमदिने उदुम्बरकुष्ठी जातो मृत्वा तत्रैव गर्दभी भूत्वा तत्रैव सूकरी जाता। ततोऽपि मृत्वास्यां चम्पायां चाण्डालवाटके कुक्कुरी जाता। ततोऽपि मृत्वा तत्रैव वाटके मातङ्गनीलकौशाम्ब्योः पुत्री जात्यन्धा दुर्गन्धा च जाता। एकदा तो सूर्यमित्राग्निभूती तत्रागतौ । सूर्यमित्रस्योपवास अग्निभूतिश्चर्यार्थ पुरं प्रविश्यन्नन्तराले जम्बूवृक्षाधस्तान्मातङ्गी वीक्ष्य दुःखेनाश्रुपातं कृत्वा व्याधुटितो गुरुं नत्वा पृष्टवांस्तदर्शनात् किमिति मे दुःखं जातम् । गुरुणा तत्स्वरूपे भव्यत्वे तद्दिने मृत्यौ च कथिते तेन संबोध्याणुव्रतानि संन्यासनं च ग्राहिता । तावदेतद्वनिता त्रिवेद्या इमान् नागान् पूजयितुमागच्छन्तयास्तूर्याड म्बरमाकर्ण्य व्रतमाहात्म्येनास्याः पुत्री भविष्यामीति कृतनिदानेयं नागश्रीर्जाताद्य नागान् पूजयितुमागता । सूर्यमित्राग्निभूतिभट्टारकावावाम् । मे दर्शनात्पूर्वभवस्मरणाद्वेदाभ्यासं अनया बुद्ध्वा कथितम् । तद्वायुभूतिरेव नागश्रीरिति निरूपिते श्रुत्वा नागशर्मादयो
और सम्बोधित करके उसे घर वापिस ले आवें । यह सुनकर वायुभूतिको क्रोध आ गया । तब उसने उसके मुखमें पाँवसे ठोकर मार दी। इस अपमानसे क्रोधके वश होकर उसने यह निदान किया कि मैं जन्मान्तरमें तेरे दोनों पाँवोंको खाऊँगी। तत्पश्चात् सातवें दिन वायुभूतिको उदुम्बर ( एक विशेष जातिका ) कोढ़ हो गया। फिर वह मरकर वहींपर गधी और तत्पश्चात् शूकरी हुआ। इसके पश्चात् वह मरणको प्राप्त होकर इस चम्पापुरमें चण्डालके बाड़ेमें कुत्ती हुआ। फिरसे भी मरकर वह उसी बाड़े चाण्डाल नील और कौशाम्बीकी पुत्री हुआ जो कि जन्मान्ध और अतिशय दुर्गन्धित शरीरसे संयुक्त थी। एक समय वहाँपर वे सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनि आये। उस दिन सूर्यमित्र मुनिने उपवास किया था । अकेले अग्निभूति मुनि चर्याके लिये नगरकी ओर जा रहे थे। बीचमें उन्हें जामुन वृक्षके नीचे बैठी हुई वह चण्डालिनी दिखायी दी। उसे देखकर उन्हें दुख हुआ। इससे उनकी आँखोंसे आँसू निकल पड़े। तब वे आहार न लेकर वहाँ से वापिस चले आये। उन्होंने गुरुके पास आकर नमस्कार करते हुए उनसे पूछा कि उस चण्डालिनीके देखनेसे मुझे दुख क्यों हुआ ? उत्तरमें गुरुने उक्त चण्डालिनीके वृत्तान्तका निरूपण करते हुए बतलाया कि वह भव्य है और आज ही उसका मरण भी होनेवाला है। इसपर अग्निभूतिने उसे सम्बोधित करके पाँच अणुव्रतों और सल्लेखनाको ग्रहण कराया। इस बीचमें इस (नागशर्मा) की पत्नी त्रिवेदी इन नागोंकी पूजाके लिये आ रही थी। उसके बाजोंकी ध्वनिको सुनकर इसने निदान किया कि मैं व्रतके प्रभावसे इसकी पुत्री होऊँगी। तदनुसार वह त्रिवेदीकी पुत्री यह नागश्री हुई है। आज यह नागोंकी पूजाके लिये यहाँ आयी थी। हम दोनों वे ही सूर्यमित्र और अग्निभूति भट्टारक हैं। मुझे देखकर इसे पूर्व भवका स्मरण हो गया है। इससे उसने पहिले किये हुए वेदके अभ्यासका स्मरण करके यहाँ उक्त प्रकारसे परीक्षा दी है। इस प्रकारसे वह वायुभूति ही यह नागश्री है। उपर्युक्त प्रकारसे मुनिके द्वारा निरूपित इस वृत्तान्तको सुनकर नागशर्मा आदि ब्राह्मणोंने जैन धर्मकी बहुत प्रशंसा की। उस समय उनमेंसे बहुतोंने
१.प श पादेनाबाडिता ब पादेनाताडिता । २. ब उंदुम्बर श उदंवर । ३.ब जातोनु मृत्वा । ४. प श चंडाल । ५. श कुकरी । ६. प श कौशांब्याः । ७. ब प्रतिपाठोऽयम् । श जात्यन्धापि
दुर्गन्धा जाता । ८. ब प्रतिपाठोऽयम् । श प्रविशंतांतराले । ९. ब त्रिविद्या । १०. श गच्छन्त्या सूर्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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