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प्रस्तावना
वारिषेण, विष्णु और वज्रका नामोल्लेख किया गया है। यशस्तिलक चम्पू (संस्कृत, शक ८८१ ), धर्मामृत ( कन्नड, ई० १११२) आदि ग्रन्थों में भी ये कथानक वर्णित हैं। पांच अणुव्रतोंके विधिवत् पालन करनेवाले मातंग, घनदेव, वारिषेण, नीली और जयके नाम प्रसिद्ध है; एवं तत्सम्बन्धी पंच पापोंके लिए धनश्री, सत्यघोष, तापस, आरक्षक और श्मश्रु-नवनीतके उदाहरण विख्यात हैं । अन्ततः श्रीषेण, वृषभसेन और कौण्डेश, दान.
यशस्वी गिनाये गये है। ( २० क० धा० १. १९.२०. ३. १८-१९. ४.२८ ) वसनन्दि आचार्यने अपने उपासकाध्ययन में सम्यक्त्वके आठ अंगोंके उदाहरण पर्वोक्त प्रकार ही दिये हैं। केवल जिनभक्तके स्थानपर जिनदत्त नाम कहा है, तथा उक्त भक्तोंके निवास-नगरोंके नाम भी दिये हैं ( ५२ आदि )। वसुनन्दिने सात व्यसनोंके उदाहरण इस प्रकार दिये है। द्यूतके कारण युधिष्ठिरने अपना राज्य खोया और बारह वर्ष तक वनवासका दूःख भोगा। वनक्रीडाके समय मद्य पीकर यादवोंने अपना सर्वनाश कर डाला। एकचक्र निवासी बक मांसकी लोलुपताके कारण राज्य खोकर मृत्यु के पश्चात नरकको गया। बुद्धिमान चारुदत्तने भी वेश्यारत होकर अपनी समस्त सम्पत्ति खो डाली, और प्रवासमें बहुत दुःख भोगा। आखेटके पापसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नरकको गया। न्यासको अस्वीकार करने के पापसे श्रीभूतिने दण्ड पाया और दुःखपूर्वक संसार-परिभ्रमण किया। परस्त्रीका अपहरण करके विद्याधरोंका राजा व अर्धचक्री लंकाधिपति रावण नरकको गया। तथा साकेत निवासी रुद्रदत्तने सप्तव्यसनासक्त होकर नरकगति पायी और दीर्घकाल तक संसार परिम्रमण किया।
उपर्युक्त ग्रन्थों में उन उदाहरणस्वरूप उल्लिखित व्यक्तियोंका वृतान्त बहुत कम पाया जाता है। उनका कथा-विस्तार करना टीकाकारोंका काम था। जैसे रत्नकरण्डकके उल्लेखोंको कथाओंका रूप उसके टीकाकार प्रभाचन्द्रने दिया। इनमें से कुछ कथाएं कथाकोशोंमें सम्मिलित पायी जाती हैं। उनमें निहित पाप-पुण्यके परिणामोंसे शिक्षा लेकर पाठक या श्रावकसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह दूराचारसे भयभीत होकर सदाचारी और धमिष्ठ बने । पुरानी कहावत है “हित अनहित पश-पक्षी जाना।" अत: कोई आश्चर्य नहीं जो विवेकी पुरुषोंने अनुभवनके आधारसे नाना प्रकारको उपदेशात्मक कथाओं, आख्यायिकाओं व कहावतों आदिको रचना की।
पुण्यासव-कथाकोश इसी अन्तिम श्रेणीकी रचना है। विषयकी दृष्टिसे उसका नाम सार्थक है । जैन. धर्मानुसार प्रत्येक प्राणीकी मानसिक, वाचिक व कायिक क्रियाओं-द्वारा शुभ व अशुभ, पुण्य व पाप रूप आन्तरिक संस्कार उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार अपने पुण्य-पाप-द्वारा उत्पन्न सुख-दुःख के लिए स्वयंको छोड़ अन्य कोई उत्तरदायी नहीं है । जैनधर्म के इस अनिवार्य कर्म-सिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक पुरुष व स्त्री अपने मन, वचन व कायको क्रियाके लिए पूर्णत: आत्मनिर्भर और स्वयं उत्तरदायी है। व्यक्तिके भाग्य-विधान में अन्य किसो देव या मनुष्यका हाथ नहीं । समस्त जैन कथाओंका प्रायः यही सारांश है । यदि कहीं यत्र-तत्र किन्हीं देवी-देवताओंके योगदानका प्रसंग लाया गया है तो केवल परम्परागत लोक-मान्यताओं व क्षेत्रीय धारणाओंका तिरस्कार न करनेकी दृष्टिसे ।
(५) पुण्यास्रव : उसका स्वरूप और विषय पुण्यास्रव कथाकोश में कुल छप्पन कथाएं हैं जो छह अधिकारोंमें विभाजित हैं। प्रथम पाँच खण्डोंमें आठ-आठ कथाएँ हैं और छठे खण्डमें सोलह । १२-१३ वी कथाओंको एक समझना चाहिए। अन्यत्र जहाँ दो प्रारम्भिक श्लोक आये हैं, जैसे २१-२२.२६-२७.३६-३७. ४४-४५, वहाँ वे दो कथाओंसे सम्बद्ध हैं। इस प्रकार प्रारम्भिक पद्योंकी संख्या ५७ है, जिसका उल्लेख स्वयं ग्रन्थकर्ताने किया है (पृ० ३३७ )। किन्तु कथाएँ केवल ५६ हैं । इन कथाओंमें उन पुरुषों व स्त्रियोंके चरित्र वणित हैं जिन्होंने पूर्वोक्त देवपूजा आदि गृहस्थोंके छह धार्मिक कृत्योंमें विशेष ख्याति प्राप्त की।
प्रथम अष्टककी कथाओंमें देवपूजासे उत्पन्न पुण्यके उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । पूजाका मूल उद्देश्य
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