________________
स्तव-स्तुति
- ७१५
स्थविरावलि
तित्थयर केवलीणं सिद्धायरिआण सव्वसाहणं ।
• जो मुनि ज्ञान आदि की आराधना में अवसन्न हो जा किर कीरइ पूआ सा पूआ भावओ होइ॥ गया है उसे उन क्रियाओं में स्थिर करने वाला स्थविर
(उनि ३१५,३१६) होता है।। . ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, शिव, इंद्र, स्कन्द और जो धर्म में अस्थिर हैं, उनको धर्म में स्थिर करता विष्णु की पूजा द्रव्य पूजा है ।
है, वह स्थविर है। अर्थत सिट केवली. आचार्य और साधओं की पूजा स्थविरा जातिश्रतपर्यायभेदभिन्नाः, तत्र जातिस्थविरा: भाव पूजा है।
षष्टिवर्षप्रमाणाः श्रुतस्थविराः समवायधराः पर्यायस्थविरा क्षायोपशमिक आदि प्रशस्त भावों में वर्तमान व्यक्ति विंशतिवर्षव्रतपर्यायाः ....."बहुश्रुतमापेक्षिक प्रतिपत्तव्यं, ही भाव पूजा कर सकता है।
श्रतं च त्रिधा सवतोऽर्थत उभयतश्च. तत्र सत्रधरेभ्योर्थ
धरा: प्रधानास्तेभ्योऽप्युभयधरा: प्रधानाः। ६. स्तुति के प्रकार
(आवमवृ प १६१) स्तुतिद्विधा--प्रणामरूपा असाधारणगुणोत्कीर्तनरूपा
स्थविर तीन प्रकार के होते हैंच । तत्र प्रणामरूपा सामर्थ्य गम्या। असाधरणगुणोत्कीर्तन- १. जातिस्थविर --साठ वर्ष की आयु वाले। रूपा च द्विधा--स्वार्थसम्पदभिधायिनी परार्थसम्पदभिधा
२. श्रुतस्थविर -समवायांग के धारक । यिनी च, तत्र स्वार्थसम्पन्नः परार्थ प्रति समर्थो भवति ।
३. पर्यायस्थविर ---बीस वर्ष की संयम पर्याय वाले।
(नन्दीमवृ प २,३) श्रुत के तीन प्रकार हैं-सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ । ... स्तुति के दो प्रकार हैं--१. प्रणामरूप स्तुति २.
सूत्रधर से अर्थधर प्रधान होता है और उनसे भी असाधारण गुणोत्कीर्तनरूप स्तुति । प्रणामरूप स्तुति प्रधान होता है-सत्रार्थधर । सामर्थ्य गम्य है । गुणोत्कीर्तनरूप स्तुति स्वार्थ और परार्थ
स्थविरावलि सम्पदा की प्रतिपादिका है। स्वार्थ-सम्पदा से सम्पन्न व्यक्ति परार्थ को साधने में समर्थ होता है।
सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं ।
पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छं सिज्जंभवं तहा ।। ७. स्तव-स्तुति के परिणाम
जसभदं तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं । थवथइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ । भद्दबाहुं च पाइण्णं, थूलभदं च गोयमं । नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं एलावच्चसगोतं, वंदामि महागिरि सुत्थि च । कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ। (उ २९।१५) "वड्ढउ वायगवंसो, जसवंसो अज्जनागहत्थीणं । स्तव और स्तुति रूप मंगल से जीव ज्ञान, दर्शन और
जीवनात दर्शन और "जेसि इमो अणओगो, पयरइ अज्जावि अढभरहम्मि । चारित्र की बोधि का लाभ करता है। ज्ञान, दर्शन और बहुनयरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए । चारित्र के बोधिलाभ से सम्पन्न व्यक्ति मोक्षप्राप्ति या "ओहसुयसमायारे, नागज्जुणवायए वंदे ।। वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य आराधना करता "अत्यमहत्थक्खाणि, सुसमणवक्खाणकहणनिव्वाणि ।
पयईए महरवाणि, पयओ पणमामि दूसगणि ।
""पाए पावयणीणं, पाडिच्छगसएहिं पणिवइए।" स्त्रीलिंग सिद्ध-स्त्रीदशा में मुक्त होने वाले। (द्र. सिद्ध)
(नन्दी गाथा २३-४२)
स्थविर परंपरा स्थविरावलि-स्थविरों की परम्परा ।
१. सुधर्मा
६. संभूत विजय स्थविरो-यः सीदन्तं ज्ञानादो स्थिरीकरोति ।
२. जंबू
७. भद्रबाहु (ओनिव प ६१) ३ प्रभव
८. स्थूलभद्र धर्मेऽस्थिरान स्थिरीकरोतीति स्थविरः ।
४. शय्यंभव
९. महागिरि (उशावृ ५५०) ५. यशोभद्र १०. सुहस्ती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org