________________
स्तव-स्तुति
७१४
स्तव के प्रकार
भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं । ४. शक्रस्तुति आरुग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति ॥
नमोत्थ णं अरहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयराणं (आवनि १०९७,१०९८) सहसंबुद्धाणं पुरिसोत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीतीर्थंकरों की भक्ति करने से पूर्वसंचित कर्म क्षीण याणं रिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहोते हैं और आचार्य की भक्ति करने से विद्या तथा मंत्र हियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं दक्खुसिद्ध होते हैं।
दयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं राग-द्वेष-विजेता वीतराग अर्हतों की परम भक्तिमया समसया मनायगा शमसारदीयं करने से आरोग्य, बोधि और समाधिमृत्यु की प्राप्ति धम्मवरचाउरंतचक्कवीणं दीवो ताणं सरणं-गई पइट्टा होती है।
अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं विअट्टछउमाणं जिणाणं ३. महावीरस्तुति
जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरू जगाणंदो।
मोयगाणं सव्वण्णणं सव्वदरिसीणं सिवमयलमख्यमणंतजगणाही जगबंध जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ मक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तय सिद्धिगइनामधय ठाण जयइ सयाणं पभवो तित्थयराणं अपच्छिमो जयह। संपत्ताणं नमो जिणाणं जियभयाणं। (आव ६।११) जयइ गुरू लोगाणं जयइ महप्पा महावीरो।
अर्हत् भगवान् को नमस्कार हो, जो धर्म के आदिभदं सव्वजगुज्जोयगस्स भदं जिणस्स वीरस्स ।
कर्ता, तीर्थकर, स्वयंसम्बुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषों भद्द सुरासुरणमंसियस्स भई
में प्रवर पुंडरीक और पुरुषों में प्रवर गन्धहस्ती के समान धुयरयस्स ॥
हैं। जो लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकारी, लोकप्रदीप निव्वु इपहसासणयं जयइ सया सव्वभावदेसणयं ।
और लोक में उद्योत करने वाले हैं, जो अभयदाता, कुसमयमयनाप्तणयं जिणिदवरवीरसासणयं ।।
(नन्दी १-३,२२)
चक्षदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवनदाता, बोधिदाता,
धर्मदाता, धर्मोपदेष्टा, धर्मनायक, धर्मसारथि और धर्म सज्झाय-झाण-तव-ओसहेसु, उवएसथुइपयाणेसुं ।
के चतुर्दिक व्यापी प्रवर चक्रवर्ती हैं, जो दीप, वाण, संतगुणकित्तणेसु य न होंति पुणरुत्तदोसा उ॥
शरण, गति और प्रतिष्ठा हैं, जो अबाधित प्रवर ज्ञान-दर्शन (नन्दीमवृ प १५)
के धारक और आवरणरहित हैं, जो ज्ञाता, ज्ञापक, तीर्ण जगत के समस्त जीवों की उत्पत्ति के ज्ञाता, जगत् तारक. बद्ध, बोधिदाता, मुक्त और मुक्तिदाता है, जो के गुरु और आनन्द देने वाले, जगत् के स्वामी, बन्धु
सर्वदर्शी, कल्याणकारी, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, और पितामह भगवान् महावीर विजयी हों।
अव्याबाध और पुनरावृत्ति से रहित हैं तथा सिद्धिगति सब शास्त्रों के उदभावक, तीर्थंकरों में अन्तिम, लोक
नामक स्थान को प्राप्त उन भयविजेता जिनेश्वर को के गुरु महात्मा महावीर विजयी हों।
नमस्कार हो। समूचे जगत् को प्रकाशित करने वाले, देव और ५. स्तव के प्रकार असुरों द्वारा नमस्कृत, कर्मरज को नष्ट करने वाले
दव्वथओ भावथओ दव्वथओ बहुगुणत्ति बुद्धि सिआ । भगवान् महावीर का कुशल हो।
अनिउणमइवयणमिणं छज्जीवहिअं जिणा बिति ।। मोक्षमार्ग के प्रतिपादक, सब पदार्थों के प्ररूपक,
(आवभा १९२) कुत्सित सिद्धांतों के मदनाशक, जिनेन्द्रवर श्री महावीर
स्तव के दो प्रकार हैं-द्रव्यस्तव और भावस्तव । का शासन विजयी हो।
कुछ मानते हैं कि द्रव्यस्तव बहुगुण वाला है, किंतु यह शिष्य ने पूछा ---- इस स्तुति में 'जयइ' शब्द का अज्ञानियों का वचन है, क्योंकि तीर्थकर षड़जीवनिकाय
असामियों का वजन गोंकि ia प्रयोग बार-बार हुआ है, क्या यह पुनरुक्त दोष नहीं है ?
की रक्षा का उपदेश देते हैं और द्रव्यस्तव में जीवहिंसा गुरु ने कहा-स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषधि, उपदेश, का प्रसंग आता है। स्तुति, संतगुणोत्कीर्तन- इतने स्थानों पर पूनरुक्त दोष ईसरतलवरमाइंबिआण सिवइंदखंदविण्हणं । नहीं होता।
जा किर कीरइ पूआ सा पूआ दव्वओ होइ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org