________________
सिद्ध
७११
सिद्ध अलोक से प्रतिहत होते हैं। वे लोक के अग्रभाग में अनंत ज्ञान प्रत्येक द्रव्य को जानता है। एक नर्तकी को प्रतिष्ठित होते हैं, मनुष्यलोक में शरीर को छोड़ते हैं हजारों आंखें देखती हैं। एक छोटे से कक्ष में अनेक और लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं। दीपकों का प्रकाश समा जाता है। जब अनेक मूर्त प्रदीपों
उत्ताणउव्व पासिल्लउव्व अहवा निसन्नओ चेव । की प्रभा भी सीमित क्षेत्र में समा जाती है तो अनंत जो जह करेइ कालं सो तह उववज्जए सिद्धो॥ अमूर्त आत्माओं का सीमित क्षेत्र में अवगाह क्यों नहीं
(आवनि ९६७) हो सकता ? उत्तानशयन, पार्श्वतःशयन, निषीदन अथवा अर्धावनत स्थान आदि जिस अवस्थिति में जीव मुक्त होते हैं, सुपार्श्व-सातवें तीर्थंकर। (द्र. तीर्थकर) उसी अवस्थिति में उनका लोकाग्र में अवस्थान होता सुमति- पांचवें तीर्थंकर। (द्र. तीर्थंकर)
सुविधि-नौवें तीर्थंकर । इनका अपर नाम सिद्धों का अवगाहक्षेत्र और स्पर्शना
पुष्पदन्त है। (द्र. तीर्थंकर) ईसीपब्भाराए सीआए जोअणंमि जो कोसो। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान-जिसके केवल सूक्ष्म कोसस्स य छब्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिआ ।।
लोभांश शेष रहता है, तिन्नि सया तित्तीसा धणत्तिभागो अ कोसछब्भाओ।
उसकी आत्म-विशुद्धि। जं परमोगाहोऽयं तो ते कोसस्स छब्भाए ॥
दसवां गुणस्थान । (आवनि ९६५, ९६६)
* (द्र. गुणस्थान) सीता नाम की ईषत्-प्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन सूक्ष्मसंपराय चारित्र-दशवें गुणस्थान में होने ऊपर लोक का अन्त है । उस योजन के उपरिवर्ती कोस
वाला चारित्र। के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना होती है, क्योंकि
(द्र. चारित्र) उनकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस धनुष एक सूत्र-दृष्टिवाद का दूसरा भेद । इसमें ऋजुसूत्र, हाथ आठ अंगुल है और वह कोस का छठा भाग है।
परिणतापरिणत, बहुभंगिक आदि बाईस ....अन्नुन्नसमोगाढा पुट्ठा सव्वे अ लोगते ।
सूत्र प्रतिपादित हैं। (द्र. दृष्टिवाद) फुसइ अणंते सिद्धे सव्वपएसेहि निअमसो सिद्धो ।..... सूत्र-कपास आदि से उत्पन्न सूत। (आवनि ९७५,९७६)
सुयं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-अंडयं बोंडयं कीडयं सब सिद्ध अचिन्त्य परिणमन के कारण परस्पर
वालयं वक्कयं ।""अंडयं-हंसगब्भाइ।"बोंडयं फलिहसमवगाढ हैं-जहां एक सिद्ध है, वहां अनंत सिद्ध हैं। प्रत्येक सिद्ध अपने असंख्येय आत्मप्रदेशों से अनंत सिद्धों
माइ ।""कीडयं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-पट्टे मलए का स्पर्श करता है । सब सिद्ध लोकान्त का स्पर्श करते
अंसुए चीणंसुए किमिरागे ।"" वालयं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा- उण्णिए उट्टिए मियलोमिए कुतवे किट्टिसे ।" वक्कयं सणमाइ।
(अनु ४०-४५) १६. परिमित क्षेत्र में अनंत सिद्ध कैसे ?
सूत के पांच प्रकार हैंपरिमियदेसेऽणता किह माया मूत्तिविरहियत्ताओ। १. अण्डज-हंसगर्भ आदि से उत्पन्न सूत ।
- व नाणा दिटीओ वेगरूवम्मि|| २. बोंडज-कपास आदि से उत्पन्न सत । मुत्तिमयामवि य समाणदेसया दीसए पईवाणं । ३. कीटज-इसके पांच प्रकार हैं--पट्ट, मलय, अंशुक, गम्मइ परमाणूण य मुत्तिविमुक्केसु का संका? ॥ चीनांशुक और कृमिराग।
(विभा १८६०, ३१८२) ४. बालज-इसके पांच प्रकार हैं ऊन का सूत, परिमित सिद्धिक्षेत्र में अनंत सिद्धों का अवगाहन औष्ट्रिक सूत, मगरोम का सत, चहे के रोम कैसे संभव है? सिद्ध अमूर्त हैं इसलिए परिमित क्षेत्र सूत और मिश्रित बालों से बना हुआ सूत । में भी अनंत सिद्ध रह सकते हैं। जैसे-अनंत सिद्धों का ५. वल्कज-सण आदि से उत्पन्न सूत ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International