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सिद्ध
७१.
सिद्धों की अवस्थिति
२. उत्कृष्ट-पांच सौ धनुष ।। ३. मध्यम---दो हाथ से अधिक और पांच सौ धनुष से
कम।
अथवा मरुदेवी सिद्धि के समय हाथी पर आरूढ़ थी, उसके अंग संकुचित थे, इसलिए उपर्युक्त अवगाहना का कथन समीचीन है।
सिद्धांत (ओवाइयं सूत्र १९५) में सिद्ध होने वाले जीवों की जघन्य अवगाहना सात हाथ प्रतिपादित है, फिर यहां दो हाथ की जघन्य अवगाहना का कथन कैसे ?
सिद्धांत में सात हाथ की अवगाहना का निर्देश श्रमण महावीर आदि तीर्थंकर की अपेक्षा से है। जघन्य दो हाथ की अवगाहना का निर्देश सामान्य केवलियों की अपेक्षा से है । जैसे-राजकुमार कूर्मापुत्र ।
(कूर्मापुत्र अपने पूर्वभव में 'दुर्लभ' नाम का राजकुमार था। वह खेलते समय अन्य कुमारों को बांधकर गेंद की भांति आकाश में उछाल कर प्रमुदित होता था। अतः कर्मबंध के कारण इस जन्म में उसकी जन्मजात अवगाहना दो हाथ की हई। उसने घर में रहते कैवल्य प्राप्त किया और फिर उस अल्पतम अवगाहना में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त
हुआ)।
अन्य आचार्यों का अभिमत है-जघन्य सात हाथ की अवगाहना वाला भी यंत्रपीलन आदि कारणों से संवर्तितसंकुचित हो जाता है, उसकी अपेक्षा से दो हाथ की अवगाहना का प्रतिपादन हुआ है।
अथवा सूत्र में जो जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना का निर्देश है, वह बहुलता की अपेक्षा से है। अन्यथा सिद्ध होने वाले जीवों की कादाचित्क जघन्य अवगाहना अंगुलपृथक्त्व (दो से नौ अंगुल) और उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व या इससे भी न्यून-अधिक हो सकती है। इसलिए कर्मापुत्र ओर मरुदेवी की अवगाहना में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है।
जैसे पांच सो आदेशवचन सूत्र में प्रतिपादित नहीं हैं, वैसे ही कुछ विस्मयबोधक तथ्यों का भी सामान्य श्रत में आकलन नहीं है।
उत्कृष्टावगाहना पञ्चधनुःशतप्रमाणा तस्यां सिद्धाः जघन्यावगाहनायां द्विहस्तमानशरीररूपायां सिद्धा: मध्यमावगाहनायां च उक्तरूपोत्कृष्टजघन्यावगाहनान्तरालवत्तिन्यां सिद्धाः।
(उशावृ प ६८३) सिद्ध होने से पूर्व जीव की अवगाहना तीन प्रकार की हो सकती है१. जघन्य-दो हाथ ।
१४. सिद्धों का संस्थान
जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरमसमयंमि । आसी अ पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ।।
(आवनि ९६९) सुसिरपरिपूरणाओ पुव्वागारनहाववत्थाओ। संठाणमणित्थंथं जं भणियं अणिययागारं ।। एत्तो च्चिय पडिसेहो सिद्धाइगुणेसु दीहयाईणं । जमणित्थंथं पुवागारावेक्खाए नाभावो । नामुत्तस्सागारो विन्नाणस्सेव न कुंभनभसो व्व । दिट्रो परिणामवओ नेयागारं च विन्नाणं ।।
(विभा ३१७२-३१७४) सिद्धों का संस्थान अनित्थंस्थ- अनियत आकार वाला होता है। सिद्ध होने से पूर्व देह के शुषिर भाग आत्मप्रदेशों से पूरित होने से सघन हो जाते हैं, उनका आकार पूर्ववत् व्यवस्थापित नहीं रहता। इस पूर्व आकार की अपेक्षा से ही सिद्धों का संस्थान बताया गया है, अन्यथा सिद्ध अमूर्त हैं, उनमें दीर्घता, ह्रस्वता आदि मूर्त गुणों का व्यपदेश नहीं हो सकता।
विज्ञान की तरह अमूर्त का आकार नहीं होतायह आपेक्षिक कथन है। जो परिणामी होता है, उस अमूर्त का भी आकार होता है । जैसे-घटपरिच्छिन्न आकाश घटाकार होता है। सिद्ध जीव परिणामी है, अतः अनन्तर भविक शरीर से परिच्छिन्न उस सिद्ध जीव का भी उपाधिमात्र से आकर होता है। विज्ञान भी ज्ञेयाकार होता है। अन्यथा नीलज्ञान से पीत आदि समग्र वस्तुज्ञान का प्रसंग आ जाता है। १५. सिद्धों को अवस्थिति
कहिं पडिहया सिद्धा? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? | कहिं बोंदि चइत्ताणं ? कत्थ गंतूण सिज्झई ? ।। अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया । इहं बोंदि चइत्ताणं, तत्थ गंतण सिझई ॥
(उ ३६.५५,५६) सिद्ध कहां रुकते हैं ? कहां स्थित होते हैं ? कहां शरीर को छोड़ते हैं ? और कहां जाकर सिद्ध होते हैं ?
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