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सिद्ध
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सिद्ध होने के स्थान
अनेकसिद्ध-एक समय में अनेक जीवों का सिद्ध
चउरुड्ढलोए य दुवे समुद्दे, होना।
तओ जले वीसमहे तहेव । एक साथ एक समय में जघन्य दो ओर उत्कृष्टतः
सयं च अठ्ठत्तर तिरियलोए, एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं ।
समएणेगेण उ सिज्झई ।। • यदि एक समय में उत्कृष्ट ३२ जीव सिद्ध हों तो
(उ ३६।५१-५४) निरन्तर आठ समय तक बत्तीस-बत्तीस सिद्ध हो दस नपुंसक, बीस स्त्रियां और एक सौ आठ पुरुष
सकते हैं, तत्पश्चात् अवश्य विरहकाल होता है। एक ही क्षण में सिद्ध हो सकते हैं। • यदि एक समय में उत्कृष्ट ४८ की संख्या में सिद्ध
गृहस्थ वेश में चार, अन्यतीर्थिक वेश में दश और हों तो निरन्तर सात समय तक इतने हो सकते हैं। निग्रंथ वेश में एक सौ आठ जीव एक ही समय में सिद्ध • यदि एक समय में उत्कृष्ट ६० जीव सिद्ध हों तो हो सकते हैं। निरन्तर छह समय तक इतने हो सकते हैं।
उत्कृष्ट अवगाहना में दो, जघन्य अवगाहना में • यदि एक समय में उत्कृष्ट ७२ सिद्ध हों तो निरन्तर चार और मध्यम अवगाहना में एक सौ आठ जीव एक पांच समय तक इतने सिद्ध हो सकते हैं।
ही क्षण में सिद्ध हो सकते हैं। • यदि एक समय में उत्कृष्ट ८४ सिद्ध हों तो निरन्तर
ऊंचे लोक में चार, समुद्र में दो, अन्य जलाशयों में चार समय तक इतने सिद्ध हो सकते हैं।
तीन, नीचे लोक में बीस, तिरछे लोक में एक सौ आठ ० यदि एक समय में उत्कृष्ट ९६ जीव सिद्ध हों तो
जीव एक ही क्षण में सिद्ध हो सकते है। निरन्तर तीन समय तक इतने जीव सिद्ध हो सकते
तीर्थसिद्धा एव तीर्थकरसिद्धाः, अतीर्थकरसिद्धा अपि • यदि एक समय में उत्कृष्ट १०२ जीव सिद्ध हों तो
तीर्थसिद्धा वा स्युः अतीर्थसिद्धा वेति, एवं शेषेष्वपि निरंतर दो ससय तक इतने जीव सिद्ध हो सकते हैं।
को भावनीयमिति, अतः किमेभिः ? इति, अत्रोच्यते,
म ० यदि एक समय में उत्कृष्ट १०८ जीव सिद्ध हों तो अन्तर्भाव सत्यपि पूर्वभेदद्वयादेवोत्तरोत्तरभेदाप्रतिपत्ते.
दूसरे समय में अवश्य विरहकाल होता हैं उसमें अज्ञातज्ञापनार्थं च भेदाभिधानमिति । कोई जीव सिद्ध नहीं होता।
(नन्दीहाव पृ ३९) एक समय में
निरन्तरता/अविरहकाल तीर्थकरसिद्ध तीर्थ में ही सिद्ध होते हैं। अतीर्थकर३२ सिद्ध
८ समय तक सिद्ध तीर्थ और तीर्थांतर-दोनों में सिद्ध हो सकते हैं।
इस प्रकार उपयुक्त पन्द्रह भेदों का तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध-इन दो भेदों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा होने पर भी इन दो भेदों से ही उत्तरोत्तर भेदों की प्रतिपत्ति होती है। किन्तु अज्ञात का ज्ञापन करने के
लिए इन पन्द्रह भेदों का प्रतिपादन हुआ है। १०२,
सिद्ध होने के स्थान १०८, दस चेव नपुंसेसु बीसं इत्थियासु य।
ऊर्ध्वलोके मेरुचलिकादौ सिद्धाः ।""अधोलोकेऽर्थादपुरिसेसु य अट्टसयं समएणेगेण सिज्झई ॥ धोलौकिकग्रामरूपेऽपि सिद्धाः । तिर्यग्लोके च अर्द्धतृतीयचत्तारि य गिहिलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य । द्वीपसमुद्ररूपे ।
(उशावृ प ६८३) सलिंगेण य अट्ठसयं, समएणेगेण सिज्मई ॥
सिद्ध होने के तीन क्षेत्र हैंउक्कोसोगाहणाए य, सिझते जुगवं दुवे । १. ऊर्ध्वलोक-मेरुपर्वत की चूलिका से जीव सिद्ध चत्तारि जहन्नाए, जवमझऽठ्ठत्तरं सयं ।।
होते हैं।
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