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अनेक सिद्ध
नरकभूमि तक, चतुष्पद चौथी नरकभूमि तक और उरपरिसर्प पांचवीं नरकभूमि तक जा सकते हैं, उससे आगे जाने योग्य मनोवीर्य उनमें नहीं होता । ऊर्ध्वलोक में ये सब सहस्रार कल्प तक जा सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि जिनके अधोगति संबंधी मनोवीर्य की परिणति में वैषम्य है, उनके ऊर्ध्वगति संबंधी वैषम्य नहीं है । इसी प्रकार स्त्री और पुरुष के अधोगति के संबंध में जैसे वैषम्य है, वैसे निर्वाण के संबंध में वैषम्य नहीं है । स्त्री सातवीं नरकभूमि में नहीं जाती, पुरुष सातवीं पृथ्वी तक जा सकते हैं । किन्तु स्त्री और पुरुष दोनों मुक्त हो सकते हैं।
तीर्थकरा अपि स्त्रीलिङ्गसिद्धा भवन्ति ? भवन्तीत्याह यत उक्तं सिद्धप्राभूते - " सव्वत्थोवा तित्थगरीसिद्धा, तित्थगरितित्थे णोतित्थसिद्धा संखेज्जगुणा, तित्थगरितित्थे गोतित्थगरिसिद्धाओ संखेज्जगुणाओ, तित्थगरितित्थे णोतित्थगरसिद्धा संखेज्जगुणा । " ( नन्दी हावृप ३९ )
क्या तीर्थंकर भी स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं ? इसका सकारात्मक उत्तर सिद्धप्राभृत में मिलता है- "स्त्री तीर्थंकर सबसे कम होते हैं । उनके तीर्थ - शासन काल में तीर्थ सिद्ध संख्ये गुण, नोतीर्थंकरी सिद्ध ( सामान्य केवली स्त्री) उससे संख्येय गुण और नोतीर्थंकर सिद्ध ( सामान्य केवली पुरुष ) उससे संख्येय गुण होते हैं । "
तीर्थंकर स्त्री और पुरुष - इन दो लिंगों में ही होते हैं । प्रत्येकबुद्ध पुरुष ही होते हैं ।
१०.
नपुंसकल सिद्ध
नपुंसकेषु वद्धितचिपितादिषु सिध्यति । (उशावृ १६५३) जो कृत्रिम नपुंसक के रूप में मुक्त होते हैं, वे नपुंसकलिंगसिद्ध हैं ।
११. स्वलिंगसिद्ध
दव्वलिंगं प्रति रजोहरण-मुहपोत्ति - पडिग्गह- धारणं सलिंगं, एतम्मि दव्वलिंगे ट्ठिता एततातो वा सिद्धा सलिंगसिद्धा । ( नन्दी पृ २७ ) स्वलिङ्गं च मुक्तिपथप्रस्थितानां भावतोऽनगारत्वादनगारलिङ्गमेव रजोहरणमुखवस्त्रिकादिरूपम् ।
( उशावृप ६७८ )
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सिद्ध
जो भावतः अनगार हैं और बाह्यतः अपने लिंग - रजोहरण, मुखवस्त्रिका, प्रतिग्रह आदि मुनिवेश में मुक्त होते हैं, वे स्वलिंगसिद्ध हैं।
१२. अन्यलिंगसिद्ध
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तावसपरिवायगादिवक्कल का सायमादिदव्वलिंगट्ठिता सिद्धा अण्ण लिंगसिद्धा । (नन्दी पृ २७) जो तापस, परिव्राजक आदि वल्कल, काषाय वस्त्र, कमंडलू आदि द्रव्यलिंग में सिद्ध होते हैं, वे अन्यलिंगसिद्ध हैं ।
अन्नलिंग सिद्ध केवलणाणं णाम जं अन्नलिंगेण सम्मत्तं पडिवन्नस्स केवलणाणं समुप्पज्जति । समुप्पत्तिकालसमयमेव कालं करेति तं अन्न लिंगसिद्ध केवलणाणं भन्नति । सो य अन्नलिंगिकेवली जति आउयमप्पणो अपरिक्खीणं पासति ततो साधुलिंगं चेव पडिवज्जति । ( आवचू १ पृ७६)
सम्यक्त्व - प्रतिपन्न अन्यलिंगी केवलज्ञान प्राप्त करता है और यदि वह उसी क्षण मुक्त हो जाता है तो उसका केवलज्ञान अन्यलिंग सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है। यदि तत्काल उसका आयुष्य क्षीण नहीं होता है तो वह स्वलिंग - साधुवेश को ही स्वीकार करता है । १३. गृहलिंग सिद्ध
सादि अलंकरणादिए दव्वलिंगे द्विता सिद्धा गिहिलिंग सिद्धा । ( नन्दीच पृ २७ ) गृहिलिङ्ग गृहस्थवेषे सिद्धा मरुदेवीस्वामिनीवत् । (उशावृप ६७८) केश, अलंकार आदि से युक्त द्रव्यलिंग-गृहस्थवेश में जो सिद्ध होते हैं, वे गृहलिंगसिद्ध हैं । जैसे - मरुदेवा । १४. एकसिद्ध
एक्कसिद्धति - एकम्मि समए एक्को चेव सिद्धो । ( नन्दीचू पृ २७) एक समय में एक सिद्ध होता है, वह एकसिद्ध है । १५. अनेक सिद्ध
अनेगसिद्धति - एकम्मि समए अणेगे सिद्धा दुगादि असतं ।
बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोधव्वा । चुलसीती छण्णउती दुरहित अट्ठत्तरसतं च ॥ (नन्दी पृ २६, २७)
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