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अनुप्रेक्षा
जीवन बीत रहा है। रात्रियां दौड़ी जा रही हैं। मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं । वे मनुष्य को प्राप्त कर उसे छोड़ देते हैं, जैसे क्षीण फल वाले वृक्ष को पक्षी ।
कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्धमि आउए । कस्स हेउं पुराकाउं जोगक्खेमं न संविदे ? ॥ ( उ ७/२४)
इस अति - संक्षिप्त आयु में ये काम भोग कुशाग्र पर स्थित जल - बिन्दु जितने हैं । फिर भी किस हेतु को सामने रखकर मनुष्य योगक्षेम को नहीं समझता ?
जया सव्वं परिच्चज्ज गंतव्वमवसस्स ते । अणिच्चे जीवलग म्मि किं रज्जम्मि पसज्जसि ? ।। (उ १८ ।१२)
पराधीन है और इसलिए सब कुछ राजन् ! तू छोड़कर तुझे चले जाना है, तब इस अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ?
३. अशरण अनुप्रेक्षा
धम्मे थिरताणिमित्तं असरणतं चितयति - जम्म-जरा-मरण भएहऽभिदुते विविवाहितत्ते । लोगम्मि णत्थि सरणं जिणिदवरसासणं मोत्तुं ॥ ( दअचू पृ १८ ) धर्मनिष्ठा के विकास के लिए अशरण अनुप्रेक्षा की जाती है
जन्म, जरा और मृत्यु के भय से पीड़ित तथा विविध व्याधियों से संतप्त लोक में अन्य कोई शरण नहीं है । अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म ही सच्ची शरण है । भज्जा पुत्ता य ओरसा । लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥ (3 613) जब मैं अपने द्वारा किए गए कर्मों से छिन्न-भिन्न होता हूं, तब माता-पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी और पुत्र- ये सभी मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते । जह सीहो व मियं गहाय,
मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले ।
माया पिया ण्हुसा भाया, नालं ते मम ताणाय,
न तस्स माया व पिया व भाया
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कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ।।
( उ १३।२२)
संसार अनुप्रेक्षा
जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को पकड़कर ले जाती है । उस समय उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं होते -- अपने जीवन का भाग देकर उसे बचा नहीं पाते ।
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सव्वं जगं जइ तुहं सव्वं वावि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव ।।
( उ १४१३९) यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा ।
४. संसार अनुप्रेक्षा
संसारुव्वेगकरणं संसाराणुप्पेहा
धी ! संसारो जहियं जुवाणओ परमरुवगव्वियओ । मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कलेवरे नियए || ( अचू पृ १८ )
धिक्कार है इस संसार को, जहां अपने सौन्दर्य पर अभिमान करने वाला युवक मृत्यु के पश्चात् अपने ही शरीर में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार संसार से विरक्त होने के लिए संसार अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है ।
असासयंमि, संसारंमि
अवे दुक्खपउराए । किं नाम होज्जतं कम्मयं, जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ॥ ( उ ८1१)
अध्रुव, अशाश्वत और दुःख - बहुल संसार में ऐसा कौन-सा अनुष्ठान है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं ?
जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसंति जंतवो ॥
जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, मृत्यु दुःख है । अहो ! यह संसार जीव क्लेश पा रहे हैं ।
( उ १९।१५)
रोग दुःख है और दुःखमय है । इसमें
समावन्नाण संसारे, नाणागोत्तासु जाइसु । कम्मा नाणाविहा कट्टु, पुढो विस्संभिया पया ॥ ( उ ३/२) संसारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर
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