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Mara-भोगों की अनित्यता
२. अनित्य अनुप्रेक्षा
संगविजयनिमित्तमणिच्चताणुप्पेहं आरमतेसव्वाणाई असासताइं इह चेव देवलोगे य । सुर-असुर-नरादीणं रिद्धिविसेसा सुहाई वा ॥ ( अचू पृ १८ )
सक्ति-विलय के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है
सब स्थान अशाश्वत हैं- चाहे इहलोक हो या देवलोक । सुर, असुर, मनुष्य आदि की ॠद्धि, सुख सब अनित्य हैं ।
दुमपत्त पंडुए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए । कुसग्गे जह ओस बिंदुए, थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए । ( उ १०।१, २) पका हुआ पत्ता जिस प्रकार मनुष्य का जीवन इसलिए हे गौतम! तू
रात्रियां बीतने पर वृक्ष का प्रकार गिर जाता है, उसी एक दिन समाप्त हो जाता है, क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।
कुश की नोक पर लटकते हुए ओस बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है, वैसे मनुष्य का जीवन भी अल्पकालिक है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।
जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपायचंचलं । जत्थ तं मुज्झती रात्रं, पेच्चत्थं नावबुज्झसे ।। (उ १८ ।१३)
राजन् ! तू जहां मोह कर रहा है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चंचल है । तू परलोक के हित को क्यों नहीं समझ रहा है ? पडंत निच्छीरं । भणइ गाहं ॥ होहिहा जहा अम्हे । किसलयाणं ॥ ( अनु ५६९।२,३) वृन्त से टूटते हुए पीले पत्तों को देख कोंपलों ने उपहास किया, तब पत्तों ने कहा - जरा ठहरो, एक दिन तुम पर भी वही बीतेगी जो आज हम पर बीत
परिजू रियपेतं, चलंतबेंट पत्तं वसणप्पत्तं कालप्पत्तं हब्भे तह अम्हे तुम्हे वि अ अप्पा पडतं पंडुयपत्तं
रही है।
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अनुप्रेक्षा
परिभवसि किमिति लोकं, जरसा परिजर्जरीकृतशरीरम् । अचिरात् त्वमपि भविष्यसि यौवनगर्वं किमुद्वहसि ।। ( उसुवृ प १६० ) दूसरों के जरा से जीर्ण शरीर को देख उपहास क्यों करते हो ? एक दिन तुम भी ऐसे ही हो जाओगे, इसलिए यौवन का गर्व मत करो ।
परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते । 'चक्खुबले य हायई... " जिब्भबले य हायई" " सव्वबले य हायई,
से सोयबले य हाय ..... घाणबले य हायई" ...''फासबले य हायई” समयं गोयम ! मा पमायए ।।
( उ १०।२१-२६) तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं । श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श – इन पांचों इन्द्रियों की शक्ति तथा पूर्ववर्ती सब प्रकार का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद
मत कर ।
असासयं दट्टु इमं विहारं बहुअन्तरायं न य दीहमाउं ।'''' (उ १४।७) यह मनुष्य-जीवन अनित्य है । इसमें भी विघ्न बहुत हैं और आयु थोड़ी है ।
शरीर की अनित्यता
असासए सरीरम्मि र नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे फेणबुब्बुयसन्निभे ।। माणुसत्ते असारम्मि वाहीरोगाण आलए । जरामरणघत्थम्मि खणं पि न रमामहं || ( १९।१३,१४) इस अशाश्वत शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल रहा है । इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है। यह पानी के बुलबुले के समान नश्वर है ।
मनुष्य जीवन असार है, है, जरा और मरण से ग्रस्त है आनन्द नहीं मिल रहा है । काम-भोगों की अनित्यता अच्चेइ कालो तूरंति राइओ
उविच्च भोगा पुरिसं चयंति
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व्याधि और रोगों का घर । इसमें मुझे एक क्षण भी
न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा ।
दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥
( उ १३।३१ )
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