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विरहकाल
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सामायिक
सामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक अधोलोक और तिरछे लोक पुनरुत्पद्यमानोऽनन्तं कालमवतिष्ठते, ततः पुनरपि में नियमतः होते हैं। ऊर्ध्व लोक में इसकी भजना है। द्वीन्द्रियादिष्वागत्य श्रुतं लभते, तस्यायमेकेन्द्रियावस्थितिमहाविदेह आदि क्षेत्र में सामायिक
काललक्षणोऽनन्तकाल उत्कृष्टतोऽन्तरं भवति । अयं
चासंख्यातपुद्गलपरावर्तमानो द्रष्टव्यः । पलिभागम्मि चउत्थे चउव्विहं चरणबज्जियमकाले।
(विभा २७७५,२७७६ मवृ पृ १७२) चरणं पि हुज्ज गमणे सव्वं सव्वत्थ साहरणे ॥
श्रुत सामायिक के प्रतिपत्ता का अंतर काल
(विभा २७१०) महाविदेह में सदा दुःषम-सुषमा नामक चौथा अर (ता
(सामायिक की पुनः प्राप्ति का व्यवहित काल) जघन्यतः
अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्टतः अनंत काल है। शेष तीन सामायिक ही रहता है। वहां चारों सामायिक की प्रतिपत्ति हो सकती है। समयक्षेत्र के बाहर केवल तिर्यच होते हैं।
के प्रतिपत्ता का अंतर काल जघन्यतः अंतर्मुहर्त, उत्कृष्टतः
देशोन अपार्ध पुद्गलपरावर्त्त है । यह अंतरकाल एक जीव अतः वहां सर्वविरति सामायिक को छोड़कर शेष तीन
की अपेक्षा से है, नाना जीवों की अपेक्षा अंतरकाल नहीं सामायिक की प्रतिपत्ति हो सकती है। नन्दीश्वर आदि द्वीपों में विद्याचारण मुनियों के जाने पर अथवा देवों के
होता।
श्रुत सामायिक का जघन्य और उत्कृष्ट अंतर काल द्वारा संहरण होने पर वहां सर्वविरति सामायिक पूर्वप्रतिपन्न हो सकता है।
मिथ्या अक्षरश्रुत की अपेक्षा से है। कोई द्वीन्द्रिय आदि
जीव श्रुत प्राप्त कर मृत्यु के पश्चात् पृथ्वी आदि में उत्पन्न अकर्मभूमि और सामायिक
होता है, वहां अंतर्मुहूर्त रहकर पुनः द्वीन्द्रिय आदि में ""नोउस्सप्पुसप्पिणिकाले तिसु सम्मसुत्ताई ॥ उत्पन्न हो श्रुत प्राप्त करता है, उसके अंतर्मुहूर्त का अंतर
(विभा २७०९) काल होता है । देवकूरूत्तरकूरुष सुषमसुषमाप्रतिभागः, हरिवर्ष- जो द्वीन्द्रिय आदि जीव मर कर पृथ्वी, वनस्पति आदि रम्यकेषु सुषमाप्रतिभागः, हैमवतरण्यवतेषु सुषमदुःषमा- एकेन्द्रिय में पुनः पुनः उत्पन्न होता है और वहां अनंतकाल प्रतिभागः......"सुषमसुषमाप्रतिभागादिषु त्रिषु प्रतिभागेषु तक रहता है, तत्पश्चात् द्वीन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो द्वे सम्यक्त्वश्रुतसामायिके जीवः प्रतिपद्यते ।
__ श्रुत प्राप्त करता है, उसकी अपेक्षा अनंतकाल का उत्कृष्ट
(विभामवृ २ पृ १५२) अंतर कहा गया है। देवकूरु-उत्तरकूरु आदि अकर्मभूमियों में उत्सपिणी
यह अनंतकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्त जितना अवसर्पिणी काल का अभाव होता है। अतः वहां केवल श्रुत और सम्यक्त्व सामायिक होते हैं।
होता है। सम्यक् श्रुत सामायिक का अंतर काल सम्यक्त्व क्षेत्र काल सामायिक
आदि सामायिक जितना ही है। १. देवकुरु-उतरकुरु सुषम-सुषमा श्रुत और सम्यक्त्व विरहकाल २. हरितर्ष-रम्यकवर्ष सुषमा श्रुत और सम्यक्त्व
सुयसम्म सत्तयं खलुविरयाविरईए होइ बारसगं । ३. हैमवत-ऐरण्यवत सुषम-दुःषमा श्रुत और सम्यक्त्व
विरईए पन्नरसगं विरहियकालो अहोरत्ता ॥ अन्तरकाल
श्रुतसम्मक्त्वयोः प्रतिपत्तिविरहकालः " जघन्यतकालमणंत च सुए अद्धापरियट्टओ य देसूणो।
स्त्वेकसमय:....."देशविरते: "'जघन्यतस्तु त्रयः समयाः आसायणबहुलाणं उक्कोसं अंतरं होइ ।। .... "सर्वविरते:....जघन्यतस्तु समयत्रयमेव । मिच्छसुयस्स वणस्सइकालो सेससामण्णो।
(आवनि ८५५ हाव पृ २४२) हीणं भिण्णमुहुत्तं सव्वेसिमिहेगजीवस्स ।। जिस काल में सामायिक का प्रतिपत्ता कोई नहीं
द्वीन्द्रियादिः कश्चित् श्रुतं लब्ध्वा मृतो यः पृथिव्या- होता, वह उसका विरहकाल है। दिषत्पद्य तत्रान्तमहत्तं स्थित्वा पुनरपि द्वीन्द्रियादिष्वागत: श्रत सामायिक और सम्यक्त्व सामायिक की प्रतिपत्ति श्रुतं लभते तस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तरं भवति । यस्तु का विरहकाल उत्कृष्टतः सात अहोरात्र, देशविरति द्वीन्द्रियादिम॑तः पृथिव्य-ऽप्-तेजो-वायु-वनस्पतिषु पुनः सामायिक का बारह अहोरात्र और सर्वविरति सामायिक
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