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सामायिक
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सामायिक के निरुक्त : उदाहरण
७. इलापुत्र
तथा मन का निग्रह करो। इन तीन शब्दों में लीन होकर चिलातक ध्यानारूढ हो गया। चींटियों ने उसके शरीर को छलनी बना डाला। परन्तु चिलातक ध्यान से विचलित नहीं हुआ। धर्म का समासरूप
उसका त्राण बन गया। ५. ऋषि आत्रेय
चार ऋषि महाराज जितशत्र के पास उपस्थित होकर बोले-हमने चार ग्रन्थों का निर्माण किया है । प्रत्येक ग्रन्थ लाख-लाख श्लोक परिमाण है। आप उन्हें सुनें। राजा ने कहा- मेरे पास इतना समय नहीं है। आप अपने ग्रन्थों को संक्षिप्त करें। संक्षिप्त करते-करते उन्होंने चार लाख श्लोकों का सार एक श्लोक में आबद्ध कर राजा से कहा
जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां क्या ।
बृहस्पतिरविश्वासः, पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ॥ आयुर्वेद के आचार्य आत्रेय ने कहा-किए हुए भोजन के जीर्ण होने पर भोजन करना ही आरोग्य का गुर है। धर्मशास्त्र के प्रणेता कपिल बोले-प्राणी मात्र पर दया रखना ही श्रेष्ठ धर्म है। नीतिशास्त्र के विशारद बृहस्पति बोले-किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए और कामशास्त्र के प्रणेता पंचाल ने कहा-स्त्रियों के प्रति मृदुता बरतनी चाहिए।
यह संक्षेपीकरण का उत्कृष्ट उदाहरण है। ६. धर्मरुचि
वसंतपुर के जितशत्रु राजा का पुत्र धर्मरुचि था। उसकी माता का नाम था धारिणी। राजा पुत्र को राज्यभार देकर प्रव्रजित होना चाहता था। पुत्र ने मां से पूछा-मां! पिताजी मुझे राज्यभार देकर स्वयं राज्य क्यों छोड़ना चाहते हैं ! मां ने कहावत्स ! राज्य संसार बढ़ाने वाला होता है । धर्मरुचि बोला-मां ! मैं फिर क्यों राज्य में फंसू । तब पिता, पुत्र और मां--तीनों तापस बन गए। अमावस्या
आई। उद्घोषित हुआ कि कल अमावस्या है । आज .. ही फलफूलों का संग्रह कर लें। कल अनाकट्टि होगी।
धर्मरुचि ने सोचा-अरे! यह क्या ? अनवद्यअनाकुट्टि तो प्रतिदिन होनी चाहिए। चिंतन आगे बढ़ा । जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ और वे प्रत्येकबुद्ध हो गए।
इलावर्धन नगर में 'इला' देवता का मंदिर था। एक सार्थवाही पुत्र के निमित्त देवता की पूजा-अर्चा करती थी। उसे पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम 'इलापुत्र' रखा । उसने अनेक कलाएं सीखीं और उन सबमें दक्षता प्राप्त कर ली। एक बार वह नट मंडली की एक कन्या में आसक्त हो गया। उसने नट-मुखिया से उसकी याचना करते हुए कहानटिनी के वजन जितनी स्वर्ण-मूद्राएं मैं देने के लिए तैयार हूं। नट बोला-यह पुत्री हमारी अक्षयनिधि है । यदि तुम हमारी नट विद्या में प्रवीण होकर हमारे साथ-साथ घूमोगे तो संभव है यह कन्या तुम्हें वरण कर ले।' इलापुत्र नटविद्या सीखने लगा। कुछ ही समय में वह निपुण हो गया। एक बार राजा के समक्ष नट-विद्या दिखाने के लिए पूरी मंडली वेणातट पर गई । राजा अपने पूरे परिवार के साथ नटविद्या देखने उपस्थित हआ। नटों की कला देखते-देखते राजा का मन उस नट-पुत्री में अटक गया। वह उसमें आसक्त होकर उसकी कामना करने लगा। नट इलापुत्र अपना करतब दिखा रहा था। राजा अन्यमनस्क था। इलापुत्र के कला-कौशल पर राजा के अतिरिक्त सब दर्शक मंत्रमुग्ध थे। राजा इलापुत्र की मृत्यु की कामना कर रहा था। इलापुत्र ने तीन बार अपना कौशल दिखाया । प्रत्येक बार पूछने पर राजा यही कहता-मैंने पूरा नहीं देखा, पुनः दिखाओ । चौथी बार इलापुत्र ने सोवा-धिक्कार है कामभोगों को। राजा इतनी रानियों से भी तृप्त नहीं हुआ । यह नट-कन्या में आसक्त है और मुझे मारना चाहता है । इलापुत्र बांस के अग्र भाग पर कला दिखा रहा था। उसने देखा, एक कुलवधू मुनि को भिक्षा दे रही है। मुनि उस रूपसुंदरी की ओर न देखते हुए अपनी भिक्षाचर्या में प्रशान्तभाव से तल्लीन हैं । इलापुत्र के अध्यवसाय विशुद्धतर होते गए। उसी समय उसे केवलज्ञान हो गया। नटकन्या विरक्त हो गई। अग्रमहिषी और राजा भी उपशम में अग्रसर हुए और इस प्रकार चारों केवलज्ञानी हुए और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। इलापूत्र ने 'परिज्ञा' के द्वारा अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया।
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