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सम्यक्त्व से ज्ञानविशोधि
आगमणं पिनिसिद्धं चरिमाउ एइ जं तिरिक्खेसु । सुरनारगाय सम्मद्दिट्ठी जं एंति मणुसु ॥
'सत्तममहिनेरइया तेऊवाऊअणं तरुण्वट्टा, न य पावे माणुस्सं ।' सुरनारकाश्च सम्यक्त्वसहिता यस्माद् मनुष्येष्वे - वाऽऽयान्ति, अतः सामर्थ्यात् तिर्यग्गतिगामिनः सप्तमपृथ्वीनारका मिथ्यात्वसहिता एवाऽऽगछन्ति ।
रूप
(विभा ४३१ मवृ पृ २०८ ) सातवीं पृथ्वी के नैरयिक गृहीतसम्यक्त्वी के में 'उद्वृत्त नहीं होते, इसलिए वे मनुष्य गति में उत्पन्न नहीं होते । वे मिथ्यात्वी होने के कारण तिर्यंच गति में ही उत्पन्न होते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव भी मनुष्य गति में उत्पन्न नहीं होते । सम्यग्दृष्टि देव और नैरयिक मनुष्य गति में उत्पन्न होते हैं ।
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सम्यक्त्व
मिध्यादृष्टि जीव सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट प्रवचन पर श्रद्धा नहीं करता । वह कुतीर्थिकों के असद्भाव - अयथार्थ सिद्धांत पर श्रद्धा करता है, फिर चाहे वे उपदिष्ट हों या अनुपदिष्ट ।
सम्मट्ठी जीव उवइट्ठे पवयणं तु सद्दहइ । सद्दहइ असम्भावं अणभोगा गुरुनिओगा वा ॥ ( उनि १६३) सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट प्रवचन पर श्रद्धा करता है और वह अपने अज्ञान के कारण तथा गुरु के कहने पर असद्भाव पर भी श्रद्धा करता है । १८. सम्यक्त्व से ज्ञानविशोधि
विसोहेइ । विसोहंति ॥
जुगवपि समुपपन्नं सम्मत्तं अहिगमं जह कायगमंजणाई जलदिट्ठीओ जह जह सुज्झइ सलिलं तह तह रुवाई पासई दिट्ठी । इय जह जह तत्तरुई तह तह तत्तागमो होइ ॥ कारण कज्जविभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेवि । जुगवुवन्नपि तहा हेऊ नाणस्स सम्मत्तं ॥ ( आवनि १९५४ - १९५६ ) जैसे काचक फल (फिटकरी आदि) जल को विशोधित करता है, अंजन आंख को विशोधित करता है, वैसे ही सम्यक्त्व ज्ञान को निर्मल करता जैसे-जैसे पानी निर्मल होता है बिम्ब स्पष्ट दिखाई देने लगता है । जैसे तत्त्व की रुचि बढ़ती है, वैसे-वैसे होता जाता है ।
जैसे दीपक और प्रकाश के युगपत् उत्पन्न होने पर भी कारण कार्य का विभाग होता है, वैसे ही सम्यक्त्व और ज्ञान युगपत् उत्पन्न होने पर भी सम्यक्त्व ज्ञान का हेतु है ।
सम्यक्त्व और ज्ञान में भेद
१६. उत्कृष्ट आयुस्थिति में सम्यक्त्व प्राप्ति आउक्कोसे दुणि उपवज्जमाणो पवण्णो वा । ( विभा २७२४) आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति में प्रथम दो सामायिक पूर्वप्रतिपन्न भी हो सकते हैं और प्राप्त भी हो सकते हैं ।
आयुषस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमलक्षणायामुत्कृष्टस्थितौ वर्तमानोऽनुत्तरसुरः प्रथमसामायिकद्वयस्य पूर्वप्रतिपन्नः प्राप्यते, सप्तमपृथिव्य प्रतिष्ठान - नारकस्तु षण्मासावशेषायुस्तथाविधविशुद्धियुक्तत्वादस्यैव सामायिकद्वयस्य प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्च लभ्यते ।
(विभामवृ२ पृ १५६, १५७ ) अनुत्तर देवों का उत्कृष्ट आयुष्य - तेतीस सागरोपम होता है । तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले अनुत्तर देव श्रुत सामायिक और सम्यक्त्व सामायिक से पूर्व प्रतिपन्न होते हैं ।
सातवीं पृथ्वी में अप्रतिष्ठान - नैरयिक की जब छह माह की आयु शेष रहती है, तब वह तदनुरूप विशुद्धि होने पर श्रुत और सम्यक्त्व सामायिक प्राप्त करता है - इस दृष्टि से वहां प्रतिपद्यमान और पूर्वप्रतिपन्न दोनों हो सकते हैं । सामायिक प्राप्ति के प्रथम समय में जीव प्रतिपद्यमान और शेष समयों में वह पूर्वप्रतिपन्न कहलाता है । १७. मिथ्यादृष्टि - सम्यग्दृष्टि की श्रद्धा में अन्तर मिच्छादिट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं ण सद्दहइ । सद्दहइ असम्भावं उवइट्ठ वा अणुवइ
जीवादिस्वरूपपरिज्ञानस्य सम्यग्भावहेतुरात्मपरिणामविशेषः सम्यक्त्वं न तु ज्ञानस्वरूपमेव । अत एव हि ज्ञानादावरणभेदो विषयभेदः कारणभेदो ज्ञानकारणत्वं च सम्यक्त्वस्य श्रुतके वलिनोक्तं, यत्तु तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमपायसद्द्रव्यतया सम्यग्दर्शनमपायो मतिज्ञानतृतीयांश: । ( उशावृप ५६३) जीव आदि तत्त्वों के सही परिज्ञान का हेतुभूत आत्म( उनि १६२ ) परिणाम सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व ज्ञानरूप नहीं है ।
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वैसे-वैसे उसमें प्रतिउसी प्रकार जैसेतत्त्वों का ज्ञान
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