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संघ का महत्त्व
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संज्ञा
सम्मइंसण-वइर-दढ-रूढ-गाढावगाढ-पेढस्स
संघ का महत्त्व धम्मवर-रयण-मंडिय-चामीयर-मेहलागस्स
णाणस्स होइ भागी थिरयरगो दसणे चरित्ते य । नियमूसिय-कणय-सिलायलुज्जल-जलंत-चित्तकूडस्स । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ।। नंदणवण-मणहर-सुरभि-सील-गंधुद्धमायस्स
(उचू पृ १९८) जीवदया-सुंदर-कंदरुद्दरिय-मुणिवर-मइंद-इण्णस्स । गुरुकुल में रहने से ज्ञान की प्राप्ति होती है, दर्शन हेउसय-धाउ-पगलंत-रयण - दित्तोसहि-गुहस्स ॥ और चारित्र में स्थिरता आती है। वे धन्य हैं जो जीवनसंवर-वरजल-पगलिय-उज्झर-प्पविरायमाण-हारस्स। पर्यन्त गुरुकुलवास नहीं छोड़ते । सावग-जण-पउर-रवंत-मोर - णच्चंत-कुहरस्स ॥
जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ, विणय-णय-पवर-मुणिवर-फूरत-विज्जू-ज्जलंत-सिहरस्स ।
चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं । विविहगुण-कप्परुक्खग - फलभर-कुसुमाउल-वणस्स ।।
तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया, नाण-वररयण-दिप्पंत-कंत-वेरुलिय-विमल-चूलस्स ।
उवेंतवाया व सुदंसणं गिरिं ॥ वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स ।।
(दचूला १।१७) (नन्दी गाथा ११-१७)
जिसकी आत्मा दृढ़ संकल्पयुक्त होती है- 'देह को
त्याग देना चाहिए पर धर्म-शासन को नहीं छोडना समुद्र-जो धैर्य रूप वेला से युक्त है, स्वाध्याययोग
चाहिए'-उस दृढ़प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियां उसी प्रकार रूप मकरों वाला है, अप्रकंपित है, विस्तीर्ण है-वह
विचलित नहीं कर सकती जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से संघ-समुद्र शिव को प्राप्त करे।
आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को। सुमेरु-जिसके दढ़ रूढ (चिरकाल से समागत), गाढ जह सागरंमि मीणा संखोहं सागरस्स असहंता। (तीव्र तत्त्व रुचि से युक्त), अवगाढ़-गहरी (पदार्थों के निति तओ सुहकामी निग्गयमित्ता विणस्संति ॥ यथार्थ ज्ञान से युक्त) सम्यग्दर्शन रूप वज्रमय पीठ है, जो एवं गच्छसमुद्दे सारणवीईहिं चोइया संता। धर्म रूप श्रेष्ठ रत्नों से जड़े हुए स्वर्ण के कन्दोरे वाला है, निति तओ सहकामी मीणा व जहा बिणस्संति ॥ जो नियम रूप कनक शिलातल से ऊंचा बना हुआ है,
(ओनि ११६, ११७) जो उज्ज्वल ज्वलन्त चित्त रूप चोटियों वाला है, जो
जो सुखकामी मत्स्य सागर की क्षुब्धता को सहन नंदनवन की मनहर सुरभि रूप शील गंध से परिव्याप्त है,
नहीं कर पाते वे सागर से अलग होकर विनष्ट हो जाते जो जीव दया रूप सुन्दर कन्दरा वाला है, जो अहिंसा के
हैं। इसी प्रकार गच्छरूपी सागर में सारणा-वारणा को प्रति दर्पित मुनिवर रूपी मृगेन्द्रों से आकीर्ण है, जो व्या
___ सहन नहीं करने वाला सुखकामी शिष्य संघ से अलग ख्यान मालाओं में सैकड़ों हेतु रूप (अन्वय-व्यतिरेक)
होकर मत्स्य की तरह नष्ट हो जाता है। धातुओं के द्वारा निष्यन्दमान श्रुतरत्न और दीप्त औषधि वाला है, जो संवर रूप निरंतर करने वाले श्रेष्ठ प्रवाह संज्ञा--ओभलाषा । मनोविज्ञान । रूप हार वाला है, जो विविध शब्द करते हुए (स्तुति-।
१.संज्ञा के प्रकार स्तोत्र आदि के द्वारा) श्रावक रूप मयूरों के प्रचुर सशब्द
२. संज्ञाओं के अर्थ तथा उत्पत्ति के कारण नृत्य वाला है तथा जहां शास्त्र-मंडप आदि रूप कुहर हैं,
३. संज्ञा (ज्ञानात्मक) के स्वामी जो विनयप्रणत श्रेष्ठ मुनिवरों की स्फुरित विद्युत्
४. एकेन्द्रिय असंज्ञी क्यों ? (तपस्या) से ज्वलंत शिखरों वाला है, जो प्रावनिक
५. एकेन्द्रिय में बुत और आहार आदि संज्ञाएं (आचार्यो) के विविध गुण रूप कल्पवृक्षों के फलों और
• वनस्पति में संज्ञा पुष्पों (ऋद्धियों) से व्याप्त वन (गच्छ) वाला है। तथा
* दीर्घकालिकी आदि संज्ञाएं (द्र. श्रुतज्ञान) जिसके प्रधान ज्ञान रूपी वैडूर्य रत्न से देदीप्यमान कांत, विमल चला है, उस संघ-महामंदराचल को विनय- १. संज्ञा के प्रकार प्रणत होकर वंदना करता हूं।
सण्णा दुविहा खओवसमिया कम्मोदइया य । तत्थ
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