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संघ
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संघ को उपमाएं
हो तो उस संख्या का वर्ग, फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग, संजम-तव-तुंबारयस्स नमो सम्मत्त-पारियल्लस्स फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग किया जाता है। जैसे ... अप्पडिचक्कस्स जओ, होउ सया संघचक्कस्स ।। ४ का तीन बार वर्ग करना है।
भई सीलपडागूसियस तव-नियम-तुरय-जुत्तस्स । ४ का वर्ग-४४४-१६ ---
संघरहस्स भगवओ, सज्झाय-सुनंदि-घोसस्स ।। १६ का वर्ग-~१६४१६-२५६
कम्मरय-जलोह-विणिग्गयस्स सुयरयणदीहनालस्स । २५६ का वर्ग-२५६४२५६-६५५३६
पंचमहव्वयथिरकण्णियस्स
गुणकेसरालस्स ॥ दूसरे शब्दों में इसे अष्टघात भी कह सकते हैं- सावग जणमहुअरिपरिवडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स । ४४४४४४४४४४४४४४४=६५५३६ संघपउमस्स भई, समणगणसहस्सपत्तस्स ॥
तीन बार संवगित करने के बाद उसमें निम्न अनन्त । तव-संजम-मयलंछण ! अकिरिय-राहमूह-रिस निच्चं। मान वाली छह राशियों का प्रक्षेप करना चाहिये--
जय संघचंद ! निम्मल-सम्मत्त-विसुद्धजुण्हागा ॥ १. सब सिद्ध जीव, २. सूक्ष्म-बादर निगोद के जीव, परितित्थियगह-पह-नासगस्स तवतेयदित्तलेसस्स । ३. प्रत्येक-साधारण वनस्पतिकायिक जीव, ४. तीनों नाणुज्जोयस्स जए, भदं दमसंघसूरस्स ।। (भूत, वर्तमान, भविष्यत्) काल के समय, ५. सर्व पुद्गल
(नन्दी गाथा ४-१०) द्रव्य, ६. सर्व आकाश की प्रदेशराशि ।
नगर उत्तरगुण रूप भवनों से गहन, श्रुतरूप रत्नों इनको प्रक्षिप्त कर फिर सर्व राशि को तीन बार से यक्त, विशद्ध दर्शन रूप मणियों से संकल. चरित्र रूप संगित करके उस राशि में केवलज्ञान और केवलदर्शन अखण्ड प्राकार वाले संघनगर ! तुम्हारा कुशल हो। के अनन्त पर्यायों को मिलाने पर उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त चक्र --जिस चक्र के संयम रूप तुम्ब और तप रूप की संख्या का परिमाण होता है। क्योंकि इससे आगे अर हैं, बाह्य पृष्ठ के लिए सम्यक्त्व रूप भ्रमि है तथा संख्या की कोई वस्तु नहीं है। श्वेताम्बर आगम सूत्र के जिसके समान दूसरा चक्र नहीं है, ऐसे विजयी संघचक्र अनुसार उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त नहीं होता । सूत्र में जहां- को सदा नमार हो। जहां अनन्तानंत का उल्लेख है वहां मध्यम अनन्त का ग्रहण ही अभीष्ट है, क्योंकि इस संख्या के मान का
रथ-जिसके शील रूप ऊंची पताका है, तप-नियम कोई पदार्थ नहीं है।
रूप घोड़े जुते हुए हैं, स्वाध्याय रूप नन्दी घोष है। ऐसे (दिगम्बर परम्परा में और कर्म ग्रंथ में इसकी भिन्न
संघरथ का कुशल हो। भिन्न परिभाषाएं हैं। देखे -अण गदाराइं सूत्र ६०३
कमल-जो श्रमणगण रूप सहस्रपत्रों से युक्त है। का टिप्पण)
कर्म रज रूप समुद्र से बाहर निकला हुआ है ।श्रुत की
रचना रूप दीर्घ नालिका वाला है। पांच महाव्रत रूप संग्रह नय—अभेदपरक दृष्टिकोण। (द्र. नय)
स्थिर कणिका वाला है। उत्तर गुणरूप केसरों वाला संघ-समान लक्ष्य वाले व्यक्तियों का संगठन । है। श्रावक रूप मधुकरों से घिरा हुआ है और जिनेश्वर
.."संघो जो नाणचरणसंघाओ।" (विभा १३८०) देव रूप सूर्य से विकसित है, ऐसे संघकमल का कुशल हो ।
जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रगुणों का संघात है, वह चन्द्र-तप-संयम रूप मृग लांछन वाले, अक्रियावादी संघ है।
नास्तिक राहुओं के मुंह से अपराजित ! हे निर्मल सम्यक्त्व प्रवचन का आधार होने के कारण संघ को प्रवचन रूप विशुद्ध ज्योत्स्ना वाले संघचन्द्र ! तुम विजयी हो। कहा गया है।
(द्र. प्रवचन)
सूर्य-जो अन्यतीथिक ग्रहों की प्रभा क्षीण कर, चतुर्विध श्रमणसंघ।
(द्र. तीर्थ) तप तेज से दीप्त लेश्या वाला है और ज्ञान से उद्योतवान संघ को नगर आदि की आठ उपमाएं
है। ऐसे उपशम प्राप्त संघसूर्य का शुभ हो। गुणभवण-गहण! सुयरयणभरिय! दसंण-विसुद्ध-रत्थागा। भई धिइ-वेला-परिगयस्स सज्झायजोग-मगरस्स। संघणगर! भदंते अक्खंडचरित्त-पागारा!॥ अक्खोभस्स भगवओ, संघसमूहस्स रुदस्स"
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