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अनशन
प्रायोपगमन का वैशिष्ट्य
सध्याघात
समभावंमि ठियप्पा सम्म सिद्धतभणितमग्गेणं । वाघातिमं जं आउयं पहप्पंतं बला उवक्कामेति,
गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करेइ ।।।। वाधिगहितो वेयणाणहितासे वेहासादी वा करेति ।
सव्वत्थापडिबद्धो दंडाययमादिठाणमिह ठाउं ।
यावज्जीवं चिट्ठाइ णिच्चिद्रो पायवसमाणो ।
(दअचू पृ १२) किसी व्याघात-बाधा के उपस्थित होने पर आयु
(उशावृ प ६०२)
प्रायोपगमन अनशन करने वाला मुनि अर्हत् कर्म की उदीरणा कर जो अनशन किया जाता है, वह
और गुरु को यथाविधि वंदन कर उनके पास चारों सव्याघात प्रायोपगमन है। अथवा व्याधिग्रस्त साधु
आहार का प्रत्याख्यान करता है । वह समभाव में स्थित वेदना के असह्य हो जाने पर वैहायस आदि मरण
हो सर्वथा अप्रतिबद्ध हो जाता है। फिर आगमिक विधि प्रकारों को अपनाता है, वह सव्याघात अनशन है। ..
से गिरिकन्दरा में जाकर, दण्डायत आदि में से किसी निर्व्याघात
एक आसनमुद्रा में स्थित हो जाता है। जीवनपर्यन्त वह निव्वाघातं सुत्तऽत्थ-तदुभयाणि गेण्हिऊण अव्वो- पादप के समान निश्चेष्ट होकर वहीं, उसी मुद्रा में स्थित च्छित्ति कातुं जरापरिणतो करेति। (दअचू पृ १२) रहता है। __ मुनि अपने गुरु के पास सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ की प्रायोपगमन का वैशिष्ट्यस्वयं वाचना लेता है तथा सूत्रार्थ परम्परा की अविच्छि
भत्तपरिण्णा इंगिणी पाओवगमं च तिणि मरणाई। नता के लिए शिष्यों को वाचना देता है, फिर वृद्धावस्था
कन्नसमज्झिमजेद्रा धिइसंघयणेण उ विसिट्ठा ।। में प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करता है-यह
(उनि २२५) निर्व्याघात अनशन है।
भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन – ये तीनों निर्हारी-अनिहारी
मरण क्रमशः विशिष्ट, विशिष्टतर और विशिष्टतम हैं। तिण्णि विणीहारिमा अनीहारिमा वा।
धति (चित्त-स्वास्थ्य) और संहनन (शरीर-सामर्थ्य ) की (दअच पृ १२)
अपेक्षा भक्तपरिज्ञा जघन्य, इंगिनी मध्यम तथा प्रायोपगमन - भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन-ये उत्तम मरण है। तीनों प्रकार के अनशन निर्हारी और अनिर्हारी-दोनों पढमंमि य संघयणे वट्टते सेलकुड्डुसमाणे । प्रकार के होते हैं।
तेसिपि य वोच्छेओ चोदृसपूवीण वोच्छए । निर्झरो-गिरिकन्दरादिगमनेन ग्रामादेर्बहिर्गमनं
(उशावृ प २३६) तद्विद्यते यत्र तन्निर्हारि । तदन्यदनिर्हारि यदुत्थातुकामे
शैलकुड्य के समान मजबूत वज्र ऋषभनाराच संहनन प्रजिकादौ विधीयते । एतच्च प्रकारद्वयमपि पादपोपगमन
वाला मुनि ही प्रायोपगमन अनशन कर सकता है। चौदह विषयम् ।
(उशाव प ६०३)
पूर्वी के विच्छेद के साथ ही इस प्रथम संहनन का भी (
विच्छेद हो गया। प्रायोपगमन अनशन दो प्रकार का है--- निर्हारी-उपाश्रय में किया जाने वाला अनशन ।
पूव्वभवियवेरेणं देवो साहरइ कोऽवि पायाले । जिससे मृत्यु के पश्चात् उसका बाहर निर्हरण किया जा मा सो चरिमसरीरो न वेयणं किंपि पावेज्जा ।। सके बाहर ले जाया जा सके ।
देवो नेहेण नयइ. देवारण्णं व इंदभवणं वा ।
जहियं इट्टा कंता सव्वसुहा हुँति सुहभावा ।। अनिर्हारी-ग्राम से बाहर गिरि, कंदरा आदि
उप्पण्ण उवसग्गे दिव्वे माणस्सए तिरिक्खे य । एकान्त स्थानों में किया जाने वाला अनशन ।
सव्वे पराजिणित्ता पाओवगया परिहरंति ।। प्रायोपगमन की विधि
: पुव्वावरउत्तरेहिं दाहिणवाएहिं आवडतेहिं । अभिवंदिऊण देवे जहाविहं सेसए य गुरुमाई। जह नवि कंपइ मेरू तह झाणातो नवि चलंति ॥ पच्चक्खाइत्तु ततो तयंतिए. सव्वमाहारं ।।
(उशाव प २३६)
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