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श्रुतज्ञान
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श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर
सभी जीवों में अक्षर (ज्ञान) का अनन्तवां भाग च जाव पुढविकाइयाणं ताव असंखेज्जगुणपरिहीणा सेढी। नित्य उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवृत हो जाए
(आवचू १ पृ ३०) तो जीव अजीव हो जाये।
अनुत्तरोपपातिक देवों का श्रुतज्ञान सर्वाधिक विशुद्ध 'सघन मेघों के होने पर भी सूर्य और चन्द्र की होता है । उससे असंख्यातगुण परिहीन श्रुतज्ञान होता है प्रभा तो रहती ही है।' इसी प्रकार आत्मा का प्रत्येक उपरितन अवेयक देवों का । इस प्रकार क्रमश: असंख्येयगुण प्रदेश ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के अनन्त परिहीन की श्रृंखला में पृथ्वीकायिक जीवों का तज्ञान पुद्गल स्कन्धों से आवेष्टित, परिवेष्टित है फिर भी ज्ञान सर्वाधिक अविशुद्ध होता है । का अनन्तवां भाग कर्मावरण के पटल का भेदन कर अव
चेतना के विकास का तारतम्य (द. ज्ञान) भासित रहता है।
२५. श्रुतज्ञान का महत्त्व तस्स उ अणंत भागो निच्चुग्घाडो य सव्वजीवाणं । सव्वचरणकरणक्रियाधारं सुतणाणं । (नन्दीचू पृ ४४) भणियो सुयम्मि केवलिवज्जाणं तिविहभेओ वि॥ श्रुतज्ञान समस्त क्रियाओं का आधार है, चाहे वे
(विभा ४९७) क्रियाएं चरणसंबन्धी (नित्य किये जाने वाले अनुष्ठान) ज्ञान का अनन्तवां भाग सदा उद्घाटित रहता है। हों अथवा करणसंबन्धी (प्रयोजनवश किये जाने वाले यही जीव और अजीव की भेदरेखा का निर्माण करता अनुष्ठान) हों। है। केवलज्ञान सर्वथा भेद-विमुक्त है । केवलज्ञानी को सुयस्स आराहणयाएणं अन्नाणं खवेइ न य संकिछोड़कर शेष जीवों के ज्ञान सम्बन्धी तीन भेद होते हैं- लिस्सइ ।
(उ २९।२५) जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ।
श्रत की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है (प्रस्तुत सूत्र में अक्षर का प्रयोग ज्ञानात्मक ही विव- और राग-द्वेष आदि से उत्पन्न होने वाले मानसिक क्षित है। केवलज्ञान का कोई विभाग नहीं होता इसलिए संक्लेशों से बचता है। ज्ञान के विकास का अनन्तवां भाग उससे संबद्ध नहीं है।
सामाइयमाईयं सुयनाणं जाव बिंदुसाराओ । अवधिज्ञान की प्रकृतियां असंख्येय हैं इसलिए ज्ञान के
तस्सवि सारो चरणं सारो चरणस्स णिवाणं ।। विकास का अनन्तवां भाग उससे संबद्ध नहीं है।
(आवनि ९३) मनःपर्यवज्ञान का भी वह संभव नहीं हो सकता । अवधि
सामायिक (आवश्यक) से बिन्दुसार (चौदहवें पूर्व) ज्ञान और मनःपर्यवज्ञान नित्य उदघाटित नहीं रहते। पर्यन्त शास्त्र श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान का सार चारित्र है। श्रुतज्ञानात्मक अक्षर का अनन्तवां भाग ही उदघाटित चारित्र का सार निर्वाण है। रहता है। श्रुत और मति दोनों सहचारी हैं।) २६. श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर २३. जघन्य श्रुत का हेतु
सयपज्जवेहिं तं केवलेण तुल्लं न होज्ज न परेहिं ।
स-परपज्जाएहि उ तुल्लं तं केवलेणेव ॥ थीणद्धिसहियनाणावरणोदयओ स पत्थिवाईणं ।
अविसेसकेवलं पुण सयपज्जाएहिं चेव तत्तुल्लं । बेइंदियाइयाणं परिवड्ढइ कमविसोहीए ।
जं नेयं पइ तं सव्वभावव्वावारविणिउत्तं ॥
(विभा ४९९) स्त्यानद्धि निद्रा युक्त ज्ञानावरण के उदय के कारण
(विभा ४९३,४९४) एकेन्द्रिय जीवों का अक्षर के अनन्तवें भाग जितना
अकार, इकार आदि वर्ण श्रुतज्ञान (श्रुताक्षर) के सर्वजघन्य चैतन्य सदा उद्घाटित रहता है (वह कभी आवृत
स्वपर्याय हैं। ये पर्याय सर्व पर्यायों का अनन्तवां भाग हैं । नहीं होता)। फिर ऋमिक विशुद्धि के साथ-साथ द्वीन्द्रिय
केवलज्ञान के स्वपर्याय अनंत हैं। अत: स्वपर्यायों से आदि जीवों में उसका क्रमिक विकास होता जाता है।
श्रुतज्ञान केवलज्ञान के तुल्य नहीं है । स्व और पर पर्यायों
के समुदित रूप में श्रुतज्ञान केवलज्ञान के तुल्य है। २४. श्रुतज्ञान-विशुद्धि का तारतम्य
सर्व-द्रव्य-पर्याय केवलज्ञान का ज्ञेय है । वह ज्ञेय के ___ अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं सम्वविसुद्धं सुतणाणं, प्रति सर्व पर्यायों के परिज्ञान में प्रवृत्त होने से केवल स्वतयणंतरं असंखेज्जगुणपरिहीणं उवरिमगेवेज्जगाणं । एवं पर्यायों से ही श्रुतज्ञान के तुल्य है।
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