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श्रुतज्ञान का विषय
मति सहित होने का संबंध भावश्रुत से । भावश्रुत के साथ द्रव्यश्रुत भी होता है, यदि वह जितनी ज्ञान की उपलब्धि है, उतना निरूपण करता 1
मति और श्रुत की भेवरेखा
सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं । मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु ॥ न केवलं शेषेन्द्रियोपलब्धिर्मतिज्ञानम् । किन्तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्च काचिदवग्रहेहादिमात्ररूपा मतिज्ञानं भवति पुस्तकादिलिखितं यद् द्रव्यश्रुतं तद् मुक्त्वा परित्यज्यैव शेषं मतिज्ञानं द्रष्टव्यम् न केवलं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम्, किन्तु यश्च शेषेसु चतुर्षु चक्षुरादीन्द्रियेषु श्रुतानुसारिसाभिलापविज्ञानरूपोऽक्षरलाभः सोऽपि श्रुतम्, न त्वक्षरलाभमात्रम् । तस्येहा-पायाद्यात्मके मतिज्ञानेऽपि सद्भावात् । ( विभा ११७ मबृ पृ ६५ ) श्रोत्रेन्द्रिय के माध्यम से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । शेष चक्षु आदि इन्द्रियों से अवग्रह, ईहा आदि के रूप में जो अश्रुतानुसारी बोध होता है, वह मतिज्ञान है । श्रोत्रेन्द्रिय का ज्ञान भी जो अवग्रह, ईहा आदि रूप होता है, वह भी मतिज्ञान है । पुस्तक आदि में लिखित द्रव्यश्रुत को छोड़कर शेष मतिज्ञान है ।
केवल श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाला ज्ञान ही श्रुतज्ञान नहीं है । चक्षु आदि इन्द्रियों से जो श्रुतानुसारी साभिलाप ज्ञान होता है, वह भी श्रुतज्ञान है ।
मति-सुताणं अष्णोष्णाणुगताण वि आयरिया भेदमाह दिट्ठतसामत्थतो, जहा आगासपइट्ठिताणं धम्माऽधम्माण अष्णोष्णानुगताणं लक्खणभेदा भेदो दिट्ठो तहा मति - सुताण विसामि - कालादि अभेदे वि भेदो भण्णति । ( नन्दी चू पृ ३१) मति और श्रुत] अन्योन्य अनुगत हैं। इनमें स्वामी, अभेद है, फिर भी इनमें भिन्नता है । जैसे आकाशप्रतिष्ठित धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय अन्योन्य - अनुगत होने पर भी अपने-अपने लक्षण-भेद से भिन्न हैं ।
शुतज्ञान: मतिज्ञान का एक भेद
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विसिट्ठो वा । मइभेओ चेव सुयं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तद्वारेणोपजायमानं सर्वं मतिज्ञानमेव केवलं परोपदेशादागमवचनाच्च भन्व विशिष्ट:
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कश्चिद् मतिभेद एव श्रुतं नान्यत् ।
श्रुतज्ञान
( विभा ८६ मवृ पृ ४९ )
इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला सारा ज्ञान मतिज्ञान है । परोपदेश और आगमवचन - इन दो विशेषताओं से विशिष्ट श्रुतज्ञान मतिज्ञान का ही एक भेद है, इससे भिन्न नहीं है ।
जावतो वयणपहा सुयाणुसारेण केइ लब्भंति । ते सव्वे सुयनाणं ते याणंता मइविसेसा ॥ ( विभा ४५१ ) श्रुतग्रंथों का अनुसरण करने वाले जितने वचन-पथ हैं, वे सब श्रुतज्ञान हैं । वे श्रुतानुसारी मतिविशेष के भेद हैं और वे अनन्त हैं ।
४. श्रुतज्ञान परार्थ
पाएण पराहीणं दीवोव्व परप्पबोहयं जं च । सुयनाणं तेण परप्पबोहणत्थं तदणुओगो ॥ प्रत्येकबुद्धादीनां श्रुतस्य स्वयमेव भावात् तद्व्यवच्छेदार्थं प्रायोग्रहणम् । ( विभा ८३९ मवृ पृ ३४१ )
दीपक पर को प्रकाशित करता है । इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी स्व और पर स्वरूप का प्रकाशन - विश्लेषण करने में समर्थ है । पर प्रबोधक होने से ही वह शिक्षा अथवा व्याख्या के लिए अधिकृत है। श्रुतज्ञान गुरु से प्राप्त होता है इसलिए वह प्रायः पराधीन है। यहां 'प्रायः ' शब्द का प्रयोग सूचित करता है कि प्रत्येकबुद्ध आदि का श्रुतज्ञान स्वायत्त होता है, परायत्त नहीं । सुयणाणेणं अवसेसाणि णाणाणि णज्जंति परूविज्जंति वा । चत्तारि णाणाणि ससमुत्थाणि इमं परसमुत्थं । (आवचू १ पृ७७ )
श्रुतज्ञान से मति आदि चारों ज्ञान जाने जाते हैं तथा उनकी प्ररूपणा होती है। चार ज्ञान स्वसमुत्थ तथा श्रुतज्ञान परसमुत्थ है ।
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५. श्रुतज्ञान का विषय
से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ । खेत्तओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ । कालओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ । भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पासइ ॥ ( नन्दी १२७)
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