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श्रुतज्ञान
द्रव्यश्रुत-भावश्रुत
२६. श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर
२. द्रव्यश्रुत और भावश्रुत * मति, श्रुत और अवधि में साधर्म्य
आगमओ दव्वसुयं वत्ता सुत्तोपोगनिरवेक्खो ।
(द्र. अवधिज्ञान) नोआगमओ जाणय-भव्वसरीराऽइरित्तमिदं ।। * श्रुतज्ञान : ज्ञान और अज्ञान (5. अज्ञान) पत्ताइगयं सुत्तं । (विभा ८७७,८७८) * श्रुतसमाधि
(द्र. समाधि) श्रुत के उपयोग से निरपेक्ष अनुपयुक्त वक्ता आगमतः * श्रुतसामायिक के भेद (. सामायिक) द्रव्यश्रुत है। पत्र-पुस्तक आदि में लिखित सूत्र तथा श्रतसामायिक की स्थिति, नक्षत्र आदि
अण्डज, कपास आदि सूत्र (धागे) ज्ञ-भव्य-शरीर-व्यति
(द्र. सामापिक) | रिक्त नोआगतः द्रव्यश्रुत है। * श्रुसपुरुष के अंग
(द्र. अंगप्रविष्ट)। श्रुत में उपयुक्त श्रुत का अध्येता आगमतः भावश्रुत २७. श्रुतस्थान
है क्योंकि वह श्रुतोपयोग से अभिन्न होता है।
चरणाइसमेयम्मि उ उवओगो जो सुए तओ समए । १. श्रुतज्ञान की परिभाषा
नोआगमो त्ति भण्णइ नोसहो मीसभावम्मि । श्रुतं-वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृष्टार्थ
(विभा ८८४) ग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः । एवमाकारं वस्तु जलधारणा
आचरण से युक्त श्रुत के उपयोग को सिद्धान्त में द्यर्थक्रियासमर्थ घटशब्दवाच्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकृत- नोआगमतः भावश्रुत कहा गया है। 'नो' शब्द यहां मिश्र/ त्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानसारी युक्त अर्थ का वाचक है। इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगम विशेषः। (नन्दीमत् प ६५) ३. द्रव्यश्रुत-भावश्रुत और मतिज्ञान का संबंध ' वाच्य-वाचक के सम्बन्धज्ञान पूर्वक शब्द से सम्बद्ध
इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं । अर्थ को जानने का जो हेतु है, वह श्रुतज्ञान है। जैसे
निययत्युत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं ।। अमुक आकार वाली वस्तु, जो जलधारण आदि अर्थक्रिया
(विभा १००) में समर्थ है, वह घट (वाचक) शब्द के द्वारा वाच्य है,
इन्द्रिय और मन का निमित्त मिलने पर जो श्रुतानुइत्यादि । जिस ज्ञान में कालिक-साधारण, समान परि
सारी ज्ञान होता है तथा जो अपने अर्थ को कहने में गाम मुख्य होता है, जो शब्द और अर्थ के पर्यालोचन के समर्थ है, वह भावश्रुत है, शेष मतिज्ञान है। भनुसार होता है, जो इन्द्रिय और मन के निमित्त से।
""भावसुयं मइपुव्वं, दव्वसुयं लक्खणं तस्स ।। होता है, वह श्रुतज्ञान है।
सुयविण्णाणप्पभवं दव्वसुयमियं जओ विचितेउं ।
पुव्वं पच्छा भासइ लक्खिज्जइ तेण भावसुयं ॥ श्रूयते तदिति श्रुतं- शब्दमात्रम् । तच्च द्रव्यश्रुत
(विभा ११२,११३) मेव । यत्पुन: शब्दमाकर्णयत: स्वयं वा वदतः पुस्तका- भावश्रुत मतिपूर्वक होता है । द्रव्यश्रुत उसका लक्षण दिन्यस्तानि वा चक्षुरादिभिरक्षराण्युपलभमानस्य शेषेन्द्रिय- है। द्रव्यश्रुत भावश्रुत से उत्पन्न होता है। पहले भावगृहीतं वाऽर्थ विकल्पयतोऽक्षरारूषितं विज्ञानमुपजायते श्रुत से चिंतन किया जाता है, तत्पश्चात् उसे शब्द से तदिह भावश्रुतं श्रुतशब्देनोक्तम् । (उशावृ प ५५६,५५७) प्रकट किया जाता है । अतः द्रव्यश्रुत से भावश्रुत लक्षित ___ जो सुना जाता है वह श्रुत-शब्द है। शब्द द्रव्य- होता है। श्रुत ही है। जब शब्द को सुना जाता है, बोला जाता है, बुद्धिढेि अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं । पुस्तक आदि में न्यस्त अक्षर-विन्यास चक्षइन्द्रिय से पढ़ा इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमंजइ भणेज्जा। जाता है अथवा शेष इंद्रियों से अवगहीत अर्थ का पर्या
(विभा १२८) लोचन किया जाता है, उस समय जो अक्षरानुसारी/ जो ज्ञान बुद्धिदृष्ट अर्थों का प्रतिपादन करने में श्रुतानुसारी विज्ञान उत्पन्न होता है, वह भावश्रुत है और समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है। वह मतिज्ञान सहित वही यहां श्रुत शब्द से अभिहित है।
होता है। प्रतिपादन का संबंध द्रव्यश्रत से है और
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