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अतीथंसिद्ध
- अज्ञान
तत्त्वों
१. मिथ्यादृष्टि में सत्-असत् का विवेक नहीं होता। ४. अज्ञान भी क्षयोपशमभाव २. उसका ज्ञान भवभ्रमण का हेतु होता है।
खओवसमिया मइअन्नाणलद्धी, खओवसमिया ३. वह अपनी इच्छा के अनुसार मोक्ष के हेतुभूत त
सुयअन्नाणलद्धी, खओवस मिया विभंगनाणलद्धी"। को भवभ्रमण का हेतु मानता है।
(अनु २८५) ४. उसको ज्ञान का फल (विरति) प्राप्त नहीं होता। मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान-ये क्षायोप___ मिथ्यादृष्टिः सर्वमप्येकान्तपुरस्सरं प्रतिपद्यते, न शमिकभाव हैं। भगवदुक्तस्याद्वादनीत्या । ततो घट एवायमिति यदा ब्रूते ५. मति-श्रत : ज्ञान, अज्ञान दोनों तदा तस्मिन् घटे घटपर्यायव्यतिरेकेण शेषान् सत्त्वज्ञेय
अविसे सिया मई..-मइनाणं च मइअण्णाणं च। त्वप्रमेयत्वादीन्, सतोऽपि धर्मानपलपति, अन्यथा घट
विसेसिया-सम्महिट्रिस्स मई मइनाणं, मिच्छद्दिट्रिस्स मई एवायमित्येकान्तेनावधारणानुपपत्तेः। घटः सन्नेवेति च ।
मइअण्णाणं ।
(नन्दी ३६) ब्रवाणः पररूपेण नास्तित्वस्यानभ्युपगमात् पररूपताम
निविशेषणमति मतिज्ञान और मतिअज्ञान दोनों सतीमपि तत्र प्रतिपद्यते। ततः सन्तमसन्तं प्रतिपद्यते
हैं। सविशेषणमति-सम्यग्दष्टि की मति मतिज्ञान तथा असन्तं च सन्तमिति सदसद्विशेषपरिज्ञानाभावादज्ञाने
मिथ्यादष्टि की मति मतिअज्ञान कहलाती है। मिथ्यादृष्टेम तिश्रुते।
(नन्दीमवृ प १४३)
अविसेसियं सुयं-सुयनाणं च सुयअण्णाणं च। मिथ्यादृष्टि प्रत्येक वस्तु को एकान्तदृष्टि से विसेसियं -सम्मदिद्धिस्स सुयं सुयनाणं, मिच्छदिद्विस्स स्वीकार करता है, भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सयं सयअण्णाणं ।
(नन्दी ३६) स्याद्वादपद्धति से नहीं। घट-प्रतिपत्ति के समय जब वह निविशेषणश्रुत-श्रुतज्ञान और श्रुतअज्ञान दोनों कहता है-'यह घड़ा ही है' तब वह घड़े में विद्यमान है। सविशेषणश्रुत -सम्यक्दष्टि का श्रुत श्रुतज्ञान सत्त्व, ज्ञेयत्व, प्रमेयत्व आदि अन्य पर्यायों का अपलाप तथा मिथ्यादृष्टि का श्रुत श्रुतअज्ञान कहलाता है। करता है। अन्यथा 'यह घट ही है'-ऐसी ऐकान्तिक
६. विभंगज्ञान अवधारणा नहीं हो सकती। यह घट ही है' .. इस
__तं चेव ओहिणाणं मिच्छादिट्ठिस्स वितहभावकथन में घट में अविद्यमान पर-पर्यायों के नास्तित्व को
गाहित्तणेण विभंगणाणं भण्णति। (आवच् १ पृ ६४) स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार वह घट में अविद्यमान
विपरीत तत्त्वग्राहिता के कारण मिथ्यादष्टि का पर्यायों को भी स्वीकार कर लेता है। वह सत् को असत् और असत् को सत् मानता है। सद्-असद् के
___ अवधिज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है। विवेक से शून्य होने के कारण मिथ्यादृष्टि के मति और ७. अज्ञान तीन ही क्यों? श्रुत ज्ञान अज्ञान कहलाते हैं। (एकान्तवादी .."मइ-ओहिविवज्जासे वि होइ मिच्छं न उण सेसे ।। दृष्टिकोण में वस्तु का समग्रता से स्वीकार नहीं होता,
(विभा ५३४) इसलिए ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है।)
- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान का विपर्यास - __ मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते ययावस्थितं वस्त्वविचार्यव। मन
मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान होता है। प्रवर्तते । ततो यद्यपि च ते क्वचिद्रसोऽयं स्पर्शोऽयमित्या
शेष दो ज्ञानों-मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान का द्यवधारणाध्यवसायभावे संवादिनी तथापि न ते विपर्यास नहीं होता। अतः अज्ञाा तीन ही हैं...मतिस्याद्वादमुद्रापरिभावनातस्तथाप्रवत्तेः, किन्त यथा- अज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान । कथञ्चिद्, अतस्ते अज्ञाने। (नन्दीमव प १४३) अज्ञानवाद-(द्र. वाद) ___मिथ्यादृष्टि का मतिश्रुतज्ञान वस्तु की यथार्थता का अतिचार-आचार का अतिक्रमण । (द्र. आचार) चिन्तन नहीं करता। यद्यपि उससे कहीं संवादी अव- अतीर्थकरसिद्ध -तीर्थंकर के अतिरिक्त अन्य मुक्त धारण भी होता है, जैसे—यह रस है, यह स्पर्श है।
होने वाले। (द्र. सिद्ध) तथापि यह स्याद्वाद की मर्यादा से परिभावित नहीं है, अतीर्थसिद्ध-तीर्थ-स्थापना से पहले मुक्त होने इसलिए उसके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी अज्ञान हैं।
वाले।
(द्र. सिद्ध)
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