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शरीर
करण है। अथवा शरीरपुद्गलों का प्रथम ग्रहण संघात है ।
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औदारिक आदि पुद्गलों को छोड़ते समय चरम समय में उनका सर्वथा परित्याग परिशाटकरण है। संघात और परिशाट का कालमान एक - एक समय है । इन दोनों के अंतराल में उभयकरण होता है।
संघयणपरिसारणउभयं तिसु दोसु नरिव संघाओ ।"" ( उनि १९२ ) तेवाकम्माणं पुण संताणोऽणाइओ न संपाओ । भव्वाण होज्ज साडो सेलेसीचरिमसमयम्मि || उभयमणाइनिणं, संत भव्याण होज्ज केसिथि अंतरमणाइभावा अच्चतविभोगओ ऐसि ॥ ( विभा २३३९,३३४० ) औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीनों शरीरों के संघात आदि तीनों करण होते हैं। तेजस और कार्मण शरीर प्रवाह रूप से अनादिकालीन है, अतः इनका संघात नहीं होता । संघात का विषय है गृह्यमाण शरीर का प्रथम समय । इसी प्रकार इनका परिशाट भी नहीं होता, केवल उन भव्यों के शैलेशी अवस्था के चरम समय में होता है, जो मुक्त होने वाले हैं।
तेजस और कार्मण शरीर का उभयकरण अभव्यों की अपेक्षा अनादि अनंत है। सिद्धिगमन के समय भब्य की अपेक्षा यह सांत है। औदारिकशरीर संघातपरिशाटकाल
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तत्थोरा लियसंघाय करणं एगसमइयं, जं पढमसमओववन्नगस्थ जहा तेल्ले ओगामितो छूढो तप्पढमयाए आइयति, एवं जीवोऽवि उववज्जंतो पढमे समये गेहति ओरालियस रीरपाओग्गाई दबाई, न पुण मुंचति किचिवि परिसाउणादि समओ, मरणकालसमए एगंततो मुंचति न गिण्हति । ममिकाले किंचि गेहद किचि मुंचति । ( उशावृप १९८ ) औदारिक संघातकरण एक सामयिक होता है। जैसे तेल की तप्त कडाही में प्रक्षिप्त अपूप प्रथम क्षण में तेल को ग्रहण करता है, वैसे ही जीव उत्पत्ति के प्रथम समय में औदारिक शरीर के प्रायोग्य द्रव्य ग्रहण करता है। मृत्यु के समय पुद्गलों का एकांतत परिशाटन होता है, ग्रहण नहीं यह भी एक सामयिक है। जीवन के मध्य भाग में पुद्गलों का ग्रहण और मोचन होता रहता है ।
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आहारक शरीर संघातपरिशाटकाल
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खुड्डागभवग्गणं तिसमयहीणं जहन्नमुभयस्स । पल्लतियं समऊणं उक्कोसोंतरालकालोऽयं ॥ दो विग्गहम्मि समया समओ संघायणाइ तेहूणं । डागभवग्गणं सजणट्टिईकालो ॥ (विभा ३३१७,३३१८ ) शरीरपुद्गलों के संघात और परिशाट के मध्य का काल संघातपरिशाट अथवा उभय काल है। इसका जघन्य कालमान तीन समय न्यून एक क्षुल्लक भवग्रहण ( दो सौ छप्पन आवलिका) तथा उत्कृष्ट कालमान एक समय न्यून तीन पत्योपम है।
एक उच्छ्वासनिःश्वासप्रमाण काल में एक जीव साढे सतरह क्षुल्लकभव ग्रहण कर सकता है। एक क्षुल्लकभव वाले प्राणी का आयुष्य दो सौ छप्पन आवलिका है। एक जीव दो समय वाली विग्रह गति कर तीसरे समय में शुलकभव में उत्पन्न होता है। विग्रहगति के दो समय और उत्पत्ति के समय संघात का एक समय - इस प्रकार तीन समय न्यून दो सौ छप्पन आवलिका संघातपरिशाट का सर्वजघन्य काल है ।
देवकुरु आदि में उत्पन्न जीव प्रथम समय में औदारिकशरीर का संचात कर तीन पत्योपमप्रमाण उत्कृष्ट आयु भोगकर मरता है, उसकी अपेक्षा संघात परिशाट का उत्कृष्ट कालमान संघात का एक समय न्यून तीन पत्योपम होता है ।
आहारक शरीर संघातपरिशाटकाल
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आहारोभयकालो दुविहोयंतरंतियं जहन्नं ति । अंतमुत्तमुक्कोसम परिवट्टमूर्ण
च ॥
(विभा ३३३८)
आहारक शरीर का संपात और परिशाट एक-एक समय का होता है । संघातपरिशाटात्मक उभय काल जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अंतर्मुहूर्त है, क्योंकि आहारक शरीर का स्थितिकाल अंतर्मुहूर्त ही है ।
चतुर्दशपूर्वी आहारक शरीर का निर्माण कर प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर उसे छोड़ देता है और पुनः प्रयोजन होने पर अंतर्मुहूर्त पश्चात् पुनः आहारकशरीर का निर्माण कर सकता है इस प्रकार संघातपरिशाट का जपन्य अंतराल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अंतरकाल किचित् म्यून अर्धपुद्गलपरावर्त है एक चतुर्दशपूर्वी प्रमाद के कारण प्रतिपतित हो वनस्पति आदि में इतने काल तक रहकर पुनः चतुर्दशपूर्वी हो सकता है।
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