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जीवप्रयोगकरण : संघातपरिशाटकरण
शरीर
पांचों शरीरों की क्रमव्यवस्था का मुख्य हेतु है- कहलाता है, जो अंगोपांग नाम कर्म के उदय से इनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता और प्रदेशबहुलता। ये अनेक निष्पन्न है। तैजस और कार्मण शरीर के अंगोपांग प्रमाणों से गम्य हैं।
नहीं होते। १०. जीवप्रयोगकरण : शरीरकरण
भाष्यकार ने अंगों के निर्माण को भी मूलकरण तथा दुविहं पओगकरणं जीवेतर मूल उत्तरं जीवे। हाथ, पैर, अंगुलि आदि उपांगों के निर्माण को उत्तरकरण मूले पंचसरीरा तिसू अंगोवंगणामं च ॥ कहा है-यह कथन आपेक्षिक है। सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू अ हुंति ऊरू अ।
___औदारिक शरीर का परिकर्म, परिवर्धन आदि एए अळंगा खलु अंगोवंगाई सेसाई ॥ करना भी उत्तरकरण है । जैसे-केश, नख, दांत आदि हुँति उवंगा कण्णा नासऽच्छी जंघ हत्थ पाया य । को संस्कारित करना, लक्षपाक तैल आदि भेषज द्रव्यों से अंगोवंगा अंगुलिनहकेसामंसु एमाइ ।।
शरीर के रूपलावण्य को बढ़ाना, कानों को खींचकर तेसि उतरकरणं बोधव्वं कण्णखंधमाईयं । बड़ा करना, कंधों को मर्दन आदि से मजबूत बनाना इंदियकरणा ताणि य उवधायविसोहिओ हंति ॥ आदि। अवयवविभागविरहितमौदारिकशरीराणां प्रथमम
विषभक्षण आदि से आंख, कान आदि को क्षति भिनिवर्त्तनं तत् मूलकरणं"औदारिकर्वक्रियाहारेषु पहुंचती है, दृष्टि और श्रवणशक्ति नष्ट हो जाती है। तैजसकार्मणयोस्तदसम्भवादङ्गोपाङ्गनामैवोत्तरकरणम् ... ब्राह्मी, समीरांजन आदि के द्वारा इन्द्रियों की ग्रहणअंगोपांगनामशब्देनाङ्गोपाङ्गनामकर्मनिर्वतितान्यंगोपांगानि क्षमता वृद्धिंगत होती है। इस प्रकार इन्द्रियकरण भी गृह्यन्ते । वृद्धास्त्वंगान्यपि मूलकरणमिति मन्यन्ते, उत्तरकरण है । आपेक्षिकत्वाच्चमूलोत्तरत्वयोरुभयथाऽप्यविरोधः । “एवं
इसी प्रकार केश, नख, दांत आदि के परिकर्म के वैक्रियस्यापि, आहारकस्य तु नास्त्येव, गमनादिना
रूप में वैक्रिय शरीर का उत्तरकरण होता है। आहारक वा तस्याप्युत्तरकरणम् ।
शरीर के केश, नख, दांत आदि सहज रूप से ही विशिष्ट (उनि १८८-१९१ शाव प १९७)
होते हैं, उनका परिकर्म नहीं किया जाता। सज्जीवं मूलुत्तरकरणं मूलकरणं जमाईयं ।
सिर, उर, उदर, पीठ, बाहुयुगल और ऊरुद्वय-ये पंचण्हं देहाणं उत्तरमाइत्तियस्सेव ॥
आठ अंग हैं। मूलकरणं सिरोरुपिट्टी बाहोदरोरुनिम्माणं ।
___कर्णयुगल, नासिका, अक्षियुगल, जंघा, हाथ और उत्तरमवसेसाणं करणं केसाइकम्मं व॥
पैर --ये उपांग हैं। संठवणमणेगविहं दुण्हं, पढमस्स भेसएहिं पि।
पाददुगं जंघोरू गातदुगद्धं च दो य बाहूओ। वण्णाईणं करणं, परिकम्मं तइयए नत्थि ।।
गीवा सिरं च पुरिसो बारसअंगो.....॥ (विभा ३३१३ ३३१५) प्रयोगकरण के दो प्रकार हैं-जीवप्रयोगकरण और
___ (नन्दीहावृ पृ ६९)
शरीर के बारह अंग हैं-दो पैर, दो जंघा, दो ऊरू, अजीवप्रयोगकरण। जीव औदारिक आदि शरीरों का निर्माण करता
उर, पीठ, दो बाहु, ग्रीवा और सिर । है, वह जीवप्रयोगकरण कहलाता है। उसके दो भेद ११. जीवप्रयोगकरण : संघातपरिशाटकरण
संघायण परिसाडणमुभयं करणमहवा सरीराणं । १. मूलकरण–शरीर का अवयवविभाग से रहित आदानमयणसमओ तदंतरालं च कालो सि ।। प्रथम निर्माण मूलकरण है। इसे पुदगलसंघात
(विभा ३३१६) करण कहा जा सकता है। यह पांचों शरीरों का जीवप्रयोगकरण के तीन प्रकार हैंहोता है।
संघातकरण, परिशाटकरण और उभयकरण। २. उत्तरकरण -औदारिक, वैक्रिय और आहारक पूर्वभविक औदारिक आदि शरीरपुद्गलों को शरीर के अंग-उपांगों का निर्माण उत्तरकरण छोड़कर अग्रिम भव में पूनः पुदगलों का संग्रहण संघात
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