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औदारिक शरीर
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शरीर
मित्तं णत्थि, वेउब्वियं होज्जा लक्खमहियं, अवट्टियं है। क्षेत्र की दृष्टि से वे अनन्त लोक जितने हैं। द्रव्य पंचधणुसते, इमं पुण अवट्टितपमाणं अतिरेगजोयणसहस्सं की दृष्टि से अभवसिद्धिक जीवों से अनन्तगुना अधिक वनस्पत्यादीनामिति । उरलं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वाद् और सिद्धों के अनन्तवें भाग में हैं। बृहत्त्वाच्च भिण्डवत् । उरालं (उरालियं ?) नाम प्रत्येकशरीरिणस्तावदसंख्याता एवातस्तेषां शरीरामांसास्थिस्नाय्वाद्यवयवबद्धत्वात् । (अनुहाव पू८७) ण्यप्यसंख्यातान्येव, साधारणशरीरिणस्तु विद्यन्ते अनन्ताः औदारिक शरीर को औदारिक कहने के चार हेतु किन्तु तेषां नैकैकजीवस्यकैकं शरीरं किन्त्वनन्तानामनन्ता
नामेकैकं वपूरित्यत औदारिकशरीरिणामानन्त्येऽपि १. उदार-तीर्थंकर और गणधर भी औदारिक शरीराण्यसंख्येयान्येवेति ।
(अनुमव प १८१) शरीर धारण करते हैं इस अपेक्षा से वह उदार औदारिक शरीर वाले जीव अनंत हैं, फिर भी अथवा प्रधान शरीर है।।
उनके शरीर असंख्य ही हैं। प्रत्येकशरीरी जीव (एक २. उराल-उराल का अर्थ है.--विशाल । औदा- शरीर में एक जीव) असंख्य उनी
शरीर में एक जीव) असंख्य हैं। उनके शरीर भी असंख्य रिक शरीर की ऊंचाई एक हजार योजन से हैं। साधारणशरीरी जीव (एक शरीर में अनंत जीव) अधिक होती है । यद्यपि वैक्रिय शरीर की ऊंचाई एक शरीर में अनंत होते हैं. अतः उनके शरीर असंख्य कुछ अधिक एक लाख योजन प्रमाण होती है ही हैं। किन्तु वह अवस्थित नहीं है, वह उत्तरवक्रिय कहं पूनस्तान्यनंतलोकप्रदेशप्रमाणान्येकस्मिन्नेव काल में होती है । वैक्रिय शरीर की स्वाभाविक
लोकेऽवगाहंत इति ? अत्रोच्यते, यर्थकप्रदीपाचिष्यप्येकऊंचाई ५०० धनुष्य प्रमाण होती है।
भवनावभासिन्यामन्येषामप्यतिबहूनां प्रदीपानामचिषस्त३. उरल-भिण्डी की तरह जिसका आकार बड़ा
थैवानुविशंति अन्योन्याविरोधादेवमौदारिकान्यपीति, एवं और प्रदेश का उपचय अल्प होता है उसकी संज्ञा
सर्वशरीरेष्वप्यायोज्यम् ।
(अनुचू पृ ६३) है उरल। औदारिक शरीर आकार में बहत
मुक्त औदारिक शरीर क्षेत्र की दृष्टि से अनंत लोकऔर प्रदेशोपचय की दृष्टि से स्वल्प होता है ।
प्रमाण बतलाये गये हैं, फिर उनका समावेश एक लोक में ४. उरालिय-औदारिक शरीर जो मांस, अस्थि, कैसे हो सकता है ? इसका समाधान प्रकाश के दृष्टांत स्नायु आदि अवयवों से बद्ध होता है।
से किया गया है। जैसे एक प्रदीप के प्रकाश में अनेक प्रकार
प्रदीपों का प्रकाश समाविष्ट हो जाता है, इसी प्रकार ___..'ओरालियसरीरा'"दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- एक औदारिक शरीर के अवगाहनक्षेत्र में अनेक औदाबद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ ण जेते बद्धल्लया त रिक शरीरों का अवगाहन हो जाता है। णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं
(यह परिणतिवैचित्य का सिद्धांत है-एक आकाशअवतीरंति कालओ. खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। तत्थ ण प्रदेश में एक परमाण भी रहता है और उसी आकाशजेते मक्केल्लया ते णं अणता अणंताहिं उस्सप्पिणी- प्रदेश में अनंतप्रदेशी स्कन्ध भी रहता है। यदि ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, पूदगल द्रव्य में सूक्ष्म परिणति की क्षमता नहीं होती तो दव्वओ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागो। अनंत परमाणुओं और अनंत स्कंधों के लिए अनंत लोक
(अनु ४५७) अपेक्षित होते किन्तु सूक्ष्म परिणति की क्षमता के कारण औदारिक शरीर के दो प्रकार हैं- बद्ध और मुक्त। वे सब एक लोक में समाए हुए हैं।) उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्येय हैं। काल की दृष्टि से मणुस्साणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार दुविहा पण्णत्ता, तं जहा बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । होता है। क्षेत्र की दष्टि से वे असंख्येय लोक जितने तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं सिय संखेज्जा सिय
असंखेज्जा। जहण्णपए संखेज्जा- संखेज्जाओ कोडीओ उनमें जो मुक्त हैं वे अनन्त हैं। काल की दृष्टि से एगूणतीसं ठाणाई, तिजमलपयस्स उवरिं चउजमलपयस्स अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता हेट्टा, अहव णं छट्ठो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, अहव णं
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