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शरीर
मोदक, दही, मत्स्य, घंटा, पताका सरसों आदि की प्राप्ति शुभ है। प्रस्थान वेला में इनके प्राप्त होने से कार्य की सिद्धि होती है ।
अप्रशस्त शकुन
मइल कुचेले अब्भंगिएलए साण खुज्जवडभे या । एए उ अप्पसत्था हवंति खित्ताउ निताणं ॥ नारी पीवरगभा बहुकुमारी य कट्टभारो अ । कासायवत्थ कुच्चंधरा य कज्जं न साहेंति ।। ( ओभा ८२,८३) शरीर और वस्त्रों से मलिन तथा जीर्णवस्त्रधारी, स्नेहाभिषिक्त शरीर वाला, श्वान (बायें पार्श्व से दायें पार्श्व की ओर जाता हुआ कुत्ता), कुब्ज, वामन, निकट प्रसव वाली स्त्री ( आपन्नसत्त्वा), वर्धकुमारी, काष्ठ का गट्ठर, कषाय रंग के वस्त्रों को धारण करने वाला, दाढीमूंछ को धारण करने वाला ये सब अप्रशस्त हैं। प्रस्थानवेला में इनके प्राप्त होने में कार्य की सिद्धि नहीं होती । शरीर — काय । पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति
का माध्यम ।
१. द्रव्यकाय भावकाय
२. शरीर के प्रकार
३. औदारिक शरीर
० प्रकार
● मनुष्यों के शरीर जघन्य पद संख्या ४. वैक्रिय शरीर
५. आहारक शरीर
० प्रकार
६. तेजस शरीर
७. कार्मण शरीर
८. किस जीव के कितने शरीर ?
९. शरीरों को क्रम व्यवस्था
१०. जीवप्रयोगकरण : शरीरकरण ११. जीवप्रयोगकरण: संघातपरिशाटकरण
१२. औदारिक शरीर और रोग
१३. शरीरधारण का प्रयोजन १४. शरीरप्रत्याख्यान का परिणाम * शरीर की वर्गणायें
*
कर्म और शरीर का सम्बन्ध * शरीर की प्रवृत्ति
* शरीरनामकर्म की स्थिति
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( व्र. वर्गणा ) ( द्र. कर्म) ( द्र. योग )
औदारिक शरीर
१. द्रव्य काय-भावकाय
जीवस्स निवासाओ पोग्गलचयओ य सरणधम्माओ । काasarवसमाहाणओ य दव्व-भावमओ ॥ तज्जोग्गपुग्गला जे मुक्का य पजगपरिणया जाव । सो होइ दव्वकाओ बद्धा पुण भावओ काओ ॥ चयनं कायः चीयतेऽनेनेति वा कायो निवास- चितिशरीरो-पसमाधानेषु । तं च जीवप्रयोगपरिणामं ते मुक्ताः पुद्गला जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्टतस्त्वसंख्येयं कालं न मुञ्चन्ति ततः परं त्ववश्यं परित्यजन्ति तमिति । ( विभा ३५२७, ३५२८ मवृ पृ ३५३, ३५४) शरीर का पर्याय है - काय । काय के चार अर्थ हैं - निवास, चय, विशरण और अवयवों का सम्यक् आधान । काय में जीव का निवास होता है, प्रतिक्षण पुद्गलों का उपचय और अपचय होता है, सिर, बाहु आदि अवयव सम्यक्रूप से व्यवस्थित होते हैं - इन कारणों से शरीर को काय कहा जाता है । औदारिककाय के योग्य पुद्गल, जो औदारिककाय की परिणति के अभिमुख हैं, किन्तु अभी तक जीव ने उन्हें ग्रहण नहीं किया है, वह द्रव्यकाय है । जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पुद्गलों को औदारिककाय प्रयोग के रूप में परिणत कर छोड़ दिया है, वे भी तब तक द्रव्यकाय हैं, जब तक औदारिक शरीरकाय प्रयोगपरिणाम को छोड़ कर अन्य रूप में परिणत नहीं होते हैं। वे पुद्गल जघन्यतः अन्तमुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्येय काल तक जीव के प्रयोगपरिणाम को नहीं छोड़ते, उसके पश्चात् अवश्य छोड़ देते हैं ।
जीव से बद्ध, औदारिक आदि कायरूप में परिणत पुद्गल भावकाय है ।
२. शरीर के प्रकार
पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए वेउब्विए आहारए तेयए कम्मए । ( अनु ४४६ ) शरीर के पांच प्रकार हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण ।
३. औदारिक शरीर
उदारं उरालं उरलं उरालियं वा उदारियं, तित्थगरगणधरसरीराई पडुच्च उदारं, उदारं नाम प्रधानं, उरालं नाम विस्तरालं, विशालंति वा जं भणिते होति, कहं ? (द्र. कर्म) | सातिरेगजोयणसहस्समवद्वियप्यमाणमोरालियं अण्णमेद्दह
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